Wednesday, December 26, 2012

अस्मिता की लड़ाई

दिल्ली गैंगरेप के विरोध में लोगों का गुस्सा चौतरफा देखा जा रहा है. लोग बात कर रहे हैं कि लड़कियों-स्त्रियों की सुरक्षा के मुद्दे का स्थायी समाधान किस तरह निकले. 1970 के दशक के उत्तरार्ध में मथुरा बलात्कार कांड के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का जो फैसला आया था, उसके बाद जिस तरह देशव्यापी प्रदर्शन हुए थे और सरकार को बलात्कार संबंधी कानून में बदलाव करना पड़ा था, उसी किस्म का वातावरण इस वक्त बन गया है.

बलात्कार की घटना के बाद अकसर पीड़िता को ही दोषी ठहराने की हमारे समाज में एक रीति है, जिसमें उसे ही आधुनिक कपड़े पहनने से लेकर अकेले सड़क पर चलने को लेकर उलाहना दी जाती है. लेकिन इसके विपरीत इस बार एक सकारात्मक बात दिख रही है, लोग खुद कह रहे हैं कि सुरक्षा के लिए हम अपनी लड़कियों को घर में कैद नहीं कर सकते, न ही हर सार्वजनिक स्थल पर या लड़की जहां जाये वहां परिवारवालों की निगरानी में रख सकते हैं. आखिर लड़की होने का खामियाजा वे कबतक भुगतती रहेंगी, इसलिए सुरक्षित समाज तो उन्हें चाहिए ही.

सवाल पहले सरकार से है कि आखिर घटना घट जाने के बाद सख्ती की याद क्यों आती है? अब तक कानूनों को सख्त बना कर उस पर अमल क्यों नहीं हुआ? फास्ट ट्रैक कोर्ट को नीतिगत स्तर पर स्वीकृति मिलने के बाद भी वह क्यों नहीं बन सका? इस घटना से उपजे जनाक्रोश के दबाव में अब दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिख कर अनुरोध किया है कि वे दिल्ली में फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की प्रक्रिया को तेज करें. गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भी संसद के पटल पर कहा कि वह सुनिश्चित करेंगे कि उपरोक्त मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में हो.

सरकार अगर इच्छाशक्ति दिखाये तो जल्द सुनवाई और अपराधियों को कड़ी सजा संभव है. इसका उदाहरण राजस्थान में मिला है, जहां एक विदेशी पर्यटक के साथ हुए यौन अत्याचार के मामले में घटना के महज 15 दिन के अंदर सारी सुनवाई पूरी कर ली गयी थी और आरोपियों को सजा सुनायी गयी थी. ऐसी त्वरित कार्रवाई अन्य सभी मामलों में क्यों संभव नहीं है, ताकि बलात्कार पीड़िता का न्याय व्यवस्था पर भरोसा बन सके और वह मामले को भूल कर जिंदगी में एक नया पन्ना पलट सके. आम तौर पर यही देखने में आता है कि कभी न्यायालयों में लंबित मामलों की अधिक संख्या के नाम पर, तो कभी मामले की जांच में पुलिस द्वारा बरती जानेवाली लापरवाही एवं विलंब के नाम पर फैसला आने में सालों

Sunday, November 25, 2012

राज्य मद्द निषेध दिवस मनाया गया


माद्द निषेध दिवस के अवसर पर नेहरु युवा केंद्र के तत्वावधान में अम्बेडकर क्लब मधुकरचक के द्वारा नुक्कड़ नाटक एवं प्रभात फेरी का कार्यक्रम क्लब के अध्यक्ष कुमार दीनबन्धु  के नेतृत्व में किया गया . कार्यक्रम द्वारा ग्रामीण नवयुवकों में बढ़ती नशाखोरी एवं इसके  कुप्रभावों पर   चिंता व्यक्त किया गया , साथ ही नशाखोरी से बचने के उपायों को नाटक मंचन के द्वारा दिखया गया .कार्यक्रम में सचिव दिलीप कुमार , सदस्यों रमण ,संजीव ,मनीष ,दीपक ,मिथिलेश , गौरव , बैद्द्नाथ ,निर्भय आदि उपस्थित  जबकि उपस्थित ग्रामीणों में पूर्व मुखिया  नागेश्वर यादव , भादो शर्मा , कैलाश मंडल , शिवन रजक , सुधीर यादव आदि के  द्वारा क्लब के समाज सुधार कार्यक्रम को सराहनीय बताया गया .
                 
                                                            विदित हो की अम्बेडकर क्लब मधुकरचक एक स्वयंसेवी सामाजिक संस्था के रूप में पिछले 14 वर्षों से वृहत उद्देश्य लिए  कार्य कर रही है  . इसके कार्यक्षेत्रों में निरक्षरता उन्मूलन , पर्यावरण संरक्षण , स्वास्थ्य एवं पोषण , स्वरोजगार प्रोत्साहन , लैंगिक समानता , रूढ़िवादी एवं अन्धविश्वासी परम्पराओं का उन्मूलन , दलित उत्थान , गंभीर रोग निरोधक उपाय जैसे कई समाज सुधार के क्षेत्रों को शामिल किया गया है . लेकिन सरकारी सहायता नहीं मिलने के कारण भारत सरकार के  खेल एवं युवा मंत्रालय के नेहरु युवा केंद्र से पंजीकृत यह क्लब अपने उद्देश्यों को पाने में संघर्ष कर रहा है .  सीमित संसाधनों के बावजूद यह क्लब अपनी स्वयं की रफ़्तार से कार्य कर रहा है .

Monday, November 19, 2012

छठ पर्व की आस्था एवं ऐतिहासिकता

छठ लोकपर्व है. इसके साथ लोगों की गहरी आस्था जुड़ी है. इसमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है, सभी के लिए यह एक जैसा है. छठ किसी जाति या समुदाय से बंधा हुआ नहीं है. यही एक ऐसा पर्व है, जिसमें किसी पुरोहित की जरूरत नहीं पड़ती. प्रकृति की पूजा के इस पर्व की खासियत तो देखिये, लोग उगते सूर्य की बजाय डूबते यानी अस्ताचलगामी सूर्य को पहले अर्घ देते हैं. छठ के दौरान सूर्य और छठी मइया (पार्वती), दोनों की पूजा होती है.


उदारीकरण के दौर में लगभग सभी पर्व-त्योहारों को बाजार ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है. होली, दशहरा, दीपावली- सभी पर बाजार ने किसी न किसी रूप में प्रभाव डाला है. फिर चाहे वह रंग-बिरंगी पिचकारी हो या सजावटी दीये व बल्ब, बाजार का डंका हर जगह बज रहा है. लेकिन, छठ पर्व के आगे बाजार की अब तक नहीं चल पायी है. प्रकृति के इस पर्व में आज भी सब कुछ प्राकृतिक ही है. इतना ही नहीं, लगभग सभी पर्व-त्योहारों पर अपसंस्कृति भी हावी होती दिखायी देती है, लेकिन छठ इससे भी बचा हुआ है. सबसे मजेदार बात यह है कि दशहरा में जो युवक चंदा लेने के लिए हुड़दंग मचाते हैं, जोर-जबरदस्ती करते हैं, छठ आते ही व्यवस्थापक बन जाते हैं, कुछ लेने के बदले, देने के लिए तैयार हो जाते हैं. उनके मन में डर होता है कि छठ पूजन के दौरान अगर कुछ गलत करेंगे तो उसका गंभीर दंड मिलेगा और यदि अच्छा काम करेंगे तो काफी कुछ अच्छा होगा.
छठ की धार्मिक महत्ता बहुत अधिक है. पुराणों में भी छठ का वर्णन मिलता है. खास कर स्कंद और भविष्य पुराण में. इतिहास और अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी इसकी चर्चा है. 1111 ई से 1155 ई तक गहड़वाल वंश के राजा थे गोविंद चंद्र. वे बहुत शक्तिशाली थे. आधा उत्तर प्रदेश यानी कन्नौज से लेकर पूरे बिहार तक उनका शासन था. उनके मंत्री थे लक्ष्मीधर. उन्होंने एक पुस्तक लिखी है ‘कृत्य कल्प तरू’. इसके अध्याय ‘व्रत विवेचन कांड’ में छठ का वर्णन है. कहा गया है कि कार्तिक शुक्ल षष्ठी को स्कंद माता (पार्वती) के पुत्र स्कंद यानी कार्तिकेय का जन्म हुआ और लोग उनके जन्मोत्सव को छठ के रूप में मनाने लगे. इस पर्व के दौरान महिलाएं जो गीत गाती हैं, उससे भी लगता है कि यह पुत्र प्राप्ति के लिए किया जानेवाला विशेष पर्व है. वैसे भी यह किताब (कृत्य कल्प तरू) करीब नौ सौ साल पहले लिखी गयी थी और कोई भी पर्व अचानक किसी किताब का हिस्सा नहीं बन सकता. कम-से-कम पांच सौ साल तो लग ही जाते हैं. इस हिसाब से छठ का इतिहास करीब डेढ़ हजार साल पुराना माना जा सकता है. मिथिला के पंडितों ने भी छठ पूजा का वर्णन अपनी रचनाओं में किया है. 14वीं सदी के आरंभ में राजा हरि सिंह के मंत्री थे पंडित चंदेश्वर. उन्होंने अपनी पुस्तक ‘कृत्य रत्नाकर’ में स्कंद जन्मोत्सव की चर्चा की है. इसी तरह पंडित रूद्रधर ने अपनी रचना ‘कृत्य वर्ष’ में सूर्य पूजा का वर्णन किया है.


वैसे वैदिक काल में भी छठ पूजा की बात आयी है. पंच देवता के रूप में पहली गणना सूर्य की ही होती है. ये हैं- सूर्य, विष्णु, शिव, पार्वती और गणोश. गायत्री मंत्र ‘ऊं भूर्भव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य: धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्’ वास्तव में सूर्य की ही स्तुति है और इस मंत्र के रचयिता है विश्वामित्र. इस तरह सूर्य की पूजा वैदिक काल से होती आ रही है. हां, यह सच है कि हर भगवान की पूजा समय खंड में बदलती रही है, जैसे आजकल हनुमान जी की पूजा करनेवाले बढ़ गये हैं, लेकिन सूर्य के प्रति श्रद्धा कभी कम नहीं हुई. छठ इसका सबसे अच्छा प्रमाण है.


बिहार में तो छठ को राज्य पर्व का दर्जा प्राप्त है. बिहारियों का यह सबसे बड़ा पर्व है. शायद ही कोई बिहारी छठ पूजा में शरीक नहीं होता होगा. अब तो छठ लोकल से ग्लोबल होता जा रहा है. जहां-जहां भी बिहारी रह रहे हैं, वहां-वहां छठ हो रहा है. फिर चाहे वे महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब जैसे राज्य हों या फिजी, मॉरीशस जैसे देश, हर जगह छठ पर्व का आयोजन काफी धूमधाम से होने लगा है. अब तो बिहार सरकार की तरह दूसरी कई राज्य सरकारें भी छठ पर छुट्टी की घोषणा करने लगी हैं. बिहार से बाहर भी देश के कई प्रमुख शहरों में वहां की सरकार और राजनीतिक दल छठ को लेकर नदियों के किनारे विशेष व्यवस्थाएं करने लगे हैं. हालांकि इसके पीछे बिहारियों की बड़ी जमात को गोलबंद कर राजनीतिक लाभ लेने की भावना हो सकती है. लेकिन इस बहाने बिहारी अस्मिता को अब सम्मान भी मिलने लगा है. दूसरे राज्यों में छुट्टी की घोषणा होना बताता है कि उनके लिए बिहारी अब महत्वपूर्ण हैं, उनकी और उपेक्षा नहीं की जा सकती.

 यदि अपने क्षेत्र बिहारीगंज की बात की जाय तो छठ  में यहाँ की छटा देखते ही बनती है . शिवालय स्थित तालाब में स्थानीय विधायिका रेणु कुमारी के कोष से  44 लाख रुपये की राशि से निर्मित घाट की सुन्दरता देखते ही बनती है .

Saturday, October 27, 2012

रोजगार के अवसर

 राज्य सरकार  द्वारा जीविका प्रोत्साहन योजना के अंतर्गत सामुदायिक समन्वयक एवं क्षेत्रीय समन्वयक के पदों पर ऑनलाइन  आवेदन मांगे जा रहें हैं ! अधिक जानकारी के लिए  नीचे लिखे लिंक पर क्लिक  करें -

                                                     


                                                                         http://jobs.brlps.in

भ्रष्टाचारमुक्त भारत की शर्ते


पिछले कुछ अरसे से देशभर में भ्रष्टाचारी ताकतों से मुक्ति के लिए बेचैनी का बढ़ना स्वागत की बात है. लेकिन भ्रष्टाचार से मुक्ति को लेकर जनमानस और जानकार तीन समूहों में बंट गये लगते हैं. पहला समूह ऐसे उत्साही और सक्रिय आदर्शवादियों का है, जो यह मानते हैं कि भ्रष्टाचार का मूल आधार संपन्न वर्गो, अफसरों और नेताओं की तिकड़ी है. इनको काबू में लाने वाले नियमों व कानूनों से हम भ्रष्टाचार मुक्त भारत बना सकते हैं.


दूसरा समूह ऐसे मध्यमार्गियों का है, जिनका मानना है कि भ्रष्टाचार की जड़ें मनुष्य की कुछ बुनियादी कमजोरियों में हैं. जैसे लोभ, भोगवासना, सत्ता की भूख आदि. इसीलिए भ्रष्टाचार का निमरूलन तो आदर्श स्थिति में ही संभव है. हमारे दैनिक जीवन में इसको निगरानी और नियंत्रण से कम किया जा सकता है और करना भी चाहिए. एक तीसरा समूह ऐसे लोगों का है, जिनकी दृष्टि में भ्रष्टाचार, संपत्ति और मुनाफे को आदर देने वाली पूंजीवादी व्यवस्था का अनिवार्य अंग है. इसमें मत्स्य न्याय ही चलता है. इसीलिए भ्रष्टाचार की चर्चा हमारा ध्यान कुछ बड़ी समस्याओं, जैसे- शोषण, विषमता और गरीबी, से हटाने की दोषी है. भ्रष्टाचार से लड़ना आग बुझाने की बजाय धुएं की शिकायत करना है.


इनमें से तीनों दृष्टियां आंशिक सत्य पर आधारित हैं. इनको मानने वालों को यह याद दिलाना प्रासंगिक होगा कि हमारा समाज शुभ व अशुभ शक्तियों के बीच खुली और छिपी टकराहट से ही आगे बढ़ता या पीछे फिसलता है. आज हमें सार्वजनिक जीवन में राष्ट्रहित की कीमत पर भ्रष्टाचार के बारे में चुप्पी रखने का अवकाश नहीं है, क्योंकि भ्रष्टाचारियों की छल-कपट से न सिर्फ विकासधारा अवरुद्ध है, बल्कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की तमाम संस्थाओं की जड़ें कमजोर हो रही हैं. अब भ्रष्टाचार का बढ़ना जन हितकारी लोकतंत्र की जड़ें कमजोर करना हो चुका है. इसीलिए इस देश को सक्रिय नागरिक हस्तक्षेप और रचनात्मक राजनीतिक सहमति की जरू रत है.


भ्रष्टाचार की चर्चा में यह दोष फैल चुका है कि कौन भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने का अधिकारी बचा है? मेरी समझ से इससे बड़ी नासमझी का कोई बयान नहीं हो सकता कि ‘हम सभी जिंदगी की जद्दोजहद में अपनी औकात व जरूरत के मुताबिक भ्रष्टाचार करने की प्रवृत्ति रखते हैं. फर्क मात्र और अनुपात का ही है. कोई खीरा चोर तो कोई हीरा चोर. पूरा समाज किसी न किसी स्तर पर दोषी है.’ असल में भ्रष्टाचार सार्वजनिक पद का निजीहित के लिए दुरुपयोग करना है. इसमें किसी सरकारी प्रमाणपत्र के लिए तहसील के बाबू को दस्तूरी देने या अस्पताल में इलाज के लिए नेता से डॉक्टर की पैरवी कराने को शामिल नहीं किया जा सकता. यह सब हमारी व्यवस्था संचालन के दोषों के परिणाम हैं और अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए आपदधर्म की मजबूरी के उपाय हैं.


अब प्रश्न यह उठता है कि भ्रष्टाचार की बाढ़ 90 के दशक से क्यों फैल रही है. इसके दो कारण लगते हैं. एक तो हमने उदारीकरण और वैश्वीकरण की दिशा में मुड़कर विषमता व संपन्नता के सहअस्तित्व वाली अभावपूर्ण व्यवस्था को खुली छूट दे दी है. दूसरे, राजीव गांधी के सत्ता विकेंद्रीकरण संविधान संशोधन के बावजूद राजसत्ता के सूत्रधारों के हाथ में ताकत का केंद्रीकरण हुआ है. इसके परिणामस्वरूप सत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ कर संपत्ति बटोरना बहुत आसान हो गया है. इसे रतन टाटा जैसे सम्मानित लक्ष्मी पुत्र ने ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ की संज्ञा दी है. अगर अभाव, विषमता, केंद्रीकरण और संपन्नता की एकजुटता भ्रष्टाचार के विषवृक्ष के लिए खाद का काम कर रही है, तो इसके निमरूलन के लिए इन्हीं चारों पहलुओं पर काम करने की जरूरत है. रोटी (खाद्य सुरक्षा) और रोजी (आजीविका सुरक्षा) के लिए आम लोगों को अवसर व साधन उपलब्ध कराना जरूरी हो चुका है. इसी के साथ पढ़ाई (शिक्षा का अधिकार) और दवा (स्वास्थ्य का अधिकार) को भी हमारे राष्ट्र निर्माण का बुनियादी तत्व बनना चाहिए. इसके साथ पानी, आवास की व्यवस्था, सामाजिक न्याय और आत्म सम्मान की सुरक्षा को जोड़ देने से करोड़ों लोगों को हम भ्रष्टाचार की हजारों छोटी-छोटी यातनाओं से बचा सकते हैं.


गत 65 वर्ष में कांग्रेस-गैर कांग्रेस, स्त्री-पुरुष, सवर्ण-अवर्ण, उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम, एक दल-बहुदल, नेता-प्रोफेसर, हर तरह के नुस्खे आजमाये गये हैं. और हर परिवर्तन से भ्रष्टाचार का बुखार एक डिग्री ऊपर ही चढ़ता गया है, ऐसा क्यों?

Saturday, September 1, 2012

आरक्षण नहीं, जाति है समस्या

यह बहुत मासूम सा तर्क लगता है कि आरक्षण खत्म कीजिये, जाति अपने आप चली जायेगी. यह तर्क कहीं भी टकरा सकता है. उच्चवर्ग में शामिल हो जाने के सपने देखती मध्यवर्गीय आंखों में, अन्ना के आंदोलन में लहराते क्रांतिकारी मनुवादी मोर्चे के झंडे में, कहीं भी. यह तर्क देने वाले ज्यादातर लोग सवर्ण  वर्ग से आते हैं. यह तर्क देते हुए उनकी आवाज में अंतिम सच जान चुके होने की आश्वस्ति होती है.
वे जानते हैं आरक्षण देश के विकास के लिए घातक है, योग्यता के खिलाफ है और अगर ठीक भी हो तो कैसे इसका लाभ जरूरतमंदों तक न पहुंच कर दलित-बहुजन वर्ग के अपने अभिजात वर्ग तक सिमट कर रह जाता है.

पर फिर यहीं एक सवाल बनता है कि इस तर्क की राजनीतिक और दर्शनशास्त्रीय अवस्थिति क्या है? विशुद्ध समाजवैज्ञानिक संदर्भो में देखें तो इस तर्क की वैधता और विश्वसनीयता है भी या नहीं, और है तो कितनी है? कार्य-कारण की सबसे भोथरी समझ के साथ भी देखते ही यह तर्क भरभरा कर ढह जाता है. ऐसे कि आरक्षण जाति के पहले नहीं, बाद में आता है. आरक्षण कारण नहीं परिणाम है. परिणाम भी ऐसा नहीं कि खुद ही से निकल आया हो. यह ऐसा परिणाम है, जो कारण के कुप्रभावों से पैदा हुए असंतोष से, प्रतिकार से निकला है.
उत्पीड़ित अस्मिताओं के संघर्षो के उफान वाले आज के दौर में सत्ता और संसाधनों पर काबिज वर्गो द्वारा यथास्थिति बनाये रखने के लिए तर्क गढ़े जा रहे हैं. बीते लंबे दौर से इस राजनीति का केंद्रीय कार्यभार ही रहा है कि समस्या को जाति से खिसका कर आरक्षण पर ला खड़ा किया जाये, और अगर नहीं भी हो सके तो आरक्षण को भी जाति के बराबर की ही समस्या तो बना ही दिया जाये. अपने इस प्रयास में वे काफी हद तक सफल भी हुए हैं.

आरक्षण जातिप्रथा के अंत के लिए न तो अंतिम विकल्प है, न सबसे कारगर. बाबासाहेब आंबेडकर के ही विचारों को याद करें तो जाति को खत्म करने का असली तरीका अंतरजातीय विवाह है, क्योंकि वे श्रेणीगत पहचानों में बंटे समाज में बंटवारे और ऊंच-नीच की मूल इकाई को ही ध्वस्त कर देंगे. पर जब तक ऐसा नहीं हो पा रहा है तब तक क्या करें? तब तक क्या जाति और आरक्षण दोनों को समस्या मान लें, जैसा कि प्रगतिशील खेमे के कुछ साथी करने लगे हैं?

आरक्षण को लेकर एक और सवाल है जो कुछ प्रगतिशीलों के दिमाग में भी खटकता है. यह सवाल है आरक्षण की तथाकथित अंतहीनता का. उन्हें लगता है कि आरक्षण सिर्फ दस सालों के लिए दिया गया था, फिर इसे अब तक क्यों बढ़ाया जा रहा है? दस साल का आरक्षण सिर्फ संसद में था, और वह भी अन्य शर्तो के साथ. नौकरियों में आरक्षण का सवाल उससे बहुत अलग है और यह एक तरफ तो संविधानप्रदत्त विभेदन को रोक समानता को बढ़ाने वाले मूल अधिकारों से निकलता है और दूसरी तरफ आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े तबकों के उत्थान के लिए प्रयास करने की उस जिम्मेदारी से, जिसके लिए संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत राज्य वचनबद्ध है. फिर उस आरक्षण के साथ इसे जोड़ देना चूक नहीं साजिश है. इसके साथ एक और नुक्ता जुड़ता है, क्या सच में जातिगत विभेदन और उससे पैदा होने वाली गैरबराबरी खत्म हो गयी है और अब समस्या जाति नहीं आरक्षण है?

अब जरा अपने देश के निजी क्षेत्र पर नजर डालें, जहां अभी हाल में ही यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ ब्रिटिश कोलंबिया के डी अजित व अन्यों के अध्ययन में चौंकाने वाले आंकड़े मिले हैं. भारत की शीर्ष 1000 निजी कंपनियों के निदेशक बोर्ड में सवर्ण 93 प्रतिशत, ओबीसी 3.8 प्रतिशत और दलित 3.5 प्रतिशत हैं! इससे ज्यादा और कुछ कहने की शायद जरूरत नहीं होनी चाहिए. यही तर्क भी है आरक्षण के कम-से-कम तब तक जारी रखने का, जब तक कि भारतीय समाज बहुलवादी न हो जाये. आखिर किसी भी समाज के उत्थान की कोशिशों के लिए उसके अंदर एक खास वर्ग का होना जरूरी है.

आप चाहे उसे मध्यवर्ग कहें, या वामपंथ की भाषा में हरावल, जब तक रोज दिहाड़ी करके खाने की चिंता से मुक्त ऐसा वर्ग अस्मिताओं के अंदर पैदा नहीं होगा, उनके मुक्त होने की संभावना बहुत कम होगी. आरक्षण ने तमाम उत्पीड़ित अस्मिताओं के अंदर ऐसा ही वर्ग खड़ा करने में सफलता पायी है. आरक्षण लागू रखने के पीछे सबसे मजबूत तर्क बस यही है. और यह भी कि एक ऐसा वर्ग खड़ा हो जाने के बाद सामाजिक शक्ति-संबंधों में आने वाले बदलावों से जाति को बड़ा धक्का लगेगा और तब शायद आरक्षण की जरूरत ही न रह जाये.

Saturday, July 14, 2012

स्वयंसेवी संस्थान "मुक्तिदूत " की स्थापना

बिहारीगंज प्रखंड अंतर्गत गमैल पंचायत में "मुक्तिदूत " नामक  स्वयंसेवी संस्थान  की  स्थापना की गई ! व्यापक उद्देश्य लिए राष्ट्रीय  स्तर के इस गैर सरकारी संगठन का सञ्चालन पंचायत के स्थानीय युवकों के द्वारा किया जा रहा है !


यह संगठन समाज सेवा  से प्रेरित हो  कर कई प्रकार के उद्देश्य अपने आप में समाहित किये हुए हैं ! संस्था द्वारा समाज के दलित  ,शोषित , पिछड़े , असहाय तथा आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के विकास हेतु कई प्रकार के कार्यक्रमों का सञ्चालन , बालश्रमिक ,महिला श्रमिक आदि का उत्थान ,पर्यावरण संरक्षण हेतु जन जागरूकता ,लोगों के बीच  स्वरोजगार अपनाने हेतु कुटीर एवं  लघु उद्द्योगों की स्थापना के लिए सुझाव एवं सहायता , समाज में व्याप्त निरक्षरता एवं बेरोजगारी उन्मूलन हेतु शिक्षण एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था करना आदि कार्य को शामिल किया गया है ,जो इसके समाज सेवा की महत्वाकांक्षा को दर्शाते हैं !

इस संगठन में अध्यक्ष पद पर  श्री संजय झा (गमैल ), सचिव पद पर  श्री अमित कुमार मिश्र (गमैल ) जबकि कोषाध्यक्ष के पद पर श्रीमती अलका झा ने कार्यभार ग्रहण किया है ! सदस्यों में कंचन मिश्र , अनीता देवी , सुनील श्रीवास्तव एवं कई सदस्य शामिल हैं  !

आशा की जाती है कि "मुक्तिदूत " नामक इस संगठन के द्वारा बिहारीगंज के साथ -साथ ,आस-पास के क्षेत्र के लोगों को भी इस संस्था का लाभ  मिलेगा ! 

Wednesday, July 11, 2012

रोजगार के नए अवसर

राज्य के भूमि सुधर विभाग द्वारा अमिन , मुह्रीर  ,लिपिक , कम्प्यूटर ओपेरटर , अनुसेवक आदि पदों के ली संविदा पर नियुक्ति का विज्ञापन दिया गया है !
अधिक जानकारी के लिए इस लिंक को क्लिक करें !
http://lrc.bih.nic.in/docs/adv_10072012162.pdf

Tuesday, July 10, 2012

अरमानों को कुचलता सावन


 रिमझिम फुहारों की वो  झड़ी जब अपनी मनमोहक अदाओं से धरती के सूखे अधरों  पर अमृत वर्षा की श्रीन्खला अपने चरम पर पहुँचा  कर मेरे मनोभावों को भिगोएगी तब शायद मैं एक- आध कविताएँ अपनी रचना कोष में शामिल कर पाऊँ !




यही सोच कर  मेरी आँखे बार-बार आकाश की ओर निहारती हैं ! सजते हुए घटाओं  को देख मैं आनंदित होकर अपने कलम और डायरी को ढूँढने लग जाता हूँ ! पर जाने क्या हुआ इन बादलों को जो बार -बार सज- संवर कर आते तो हैं  ,किन्तु  विरह - वेदना में तड़पती हुई अपनी प्रियतमा 'धरती' को यूँ ही छोड़ किसी धोखेबाज प्रेमी की तरह छल कर वापस लौट जाते हैं ! और इसी के साथ-साथ मेरी भी मनोकामनाएँ  अधूरी रह जाती है !

फिर निराश हो कर समाचार -पत्र और   टी. वी. चैनलों में प्रसारित होने वाले मौसम समाचारों की और ध्यान जाता है !-- " अगले २४ घंटे में पूरे प्रदेश में झमाझम बारिश की संभावना है ! " ऐसी ख़बरों को देख एक बार फिर से मेरा ह्रिदय  उत्साहित होने लगता है ! हालाँकि कई क्षेत्रों में बारिश होती भी है किन्तु बिहारीगंज की धरती  मिलन की आस लिए अपने नसीब पर आंसू ही बहाती है ! फिर, इस सावन में मेरी कामनाओं पर निराशाओं के बदल छाने लगते हैं ! मन में एक अजीब सी बैचेनी होने लगती है कि कहीं मेरी लेखनी अधूरी ही न रह जाये !

लेखनी तो एक रुचि है जो इस सावन न भी हो तो इसका  अगले सावन तक इन्त्जार  किया जा सकता है , किन्तु हमारी अर्थव्यवस्था का मूल आधार 'भारतीय कृषि' का क्या होगा जो पूरी तरह मानसून पर ही निर्भर करती है ? अच्छी बारिश हुई तो फसल पैदावार अच्छी नहीं सूखे कि मार !

बेचारे मन को  लेखनी कार्य से महरूम रहने पर किसी तरह से समझाया था , पर अब यह फिर से बेचैन होने लगा ! बिहार जैसा प्रदेश जहाँ  सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान ३०% से अधिक है इसका क्या होगा ? सबसे अधिक जनसँख्या घनत्व  तथा तीसरे  सबसे अधिक जनसँख्या वाला यह राज्य जो विकास की सीढियों  पर चलना शुरू ही  किया  , क्या इसके पैर फिर से लड़खड़ा जायेंगे ?  पहले से ही महंगाई कि मार  झेल रही जनता के लिए मानसून का दगा देना दोहरी मार साबित नहीं होगी ? बारिश की कमी   से पैदावार कम होंगें,  फिर यह महंगाई डायन सबको  डसना शुरूकर देगी ! बिहार का विकास दर घटेगा साथ में देश का भी  ! यह भी हमारे लिए दोहरी प्रतिकूल परिस्थिति ही होगी ! भारत का विकास दर जो ८.५% से गिर कर  इस वित्तीय वर्ष कि पहली तिमाही में ५.५% पर आ गया है !फलतः विदेशी निवेश कि दर भी घट रही है , महंगाई का आलम जगजाहिर है और ऊपर से मौसम कि ये बेरूखी देश के विकाश दर को निश्चय ही रसातल कि और ले जायेगी  !

मन के ये भाव कहाँ सावन में चला था अपनी लेखनी कार्य को बढ़ाने पर ये एक नै चिंता में डूब गया ! क्या है मानसून ? आखिर क्यूँ ये अपने सही वक्त पर नहीं आया ? क्यूँ ये बदल सज - संवर कर आते तो हैं किन्तु बिन बरसे ही मेरे साथ -साथ लाखों के अरमानों को कुचल कर चले जाते हैं !

जहाँ तक मानसूनी हवाओं का प्रश्न है , सबसे पहले भूगोल्शाश्त्री अलमसूदी ने इसके बारे में बताया !भारतीय उप-महाद्वीप में मौसम परिवर्तन हवाओं कि दिशाओं पर निर्भर करता है ! मानसून की  उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई सिद्धांत प्रचलित हैं -
तापीय प्रभाव सिद्धांत के अनुसार ग्रीष्म मौसम में सूर्य के उत्तरायण होने के बाद अत्यधिक गर्मी के कारण भारतीय उप-महाद्वीप के पशिमोत्तर भाग में अति निम्न दाब का क्षेत्र बन जाता है जबकि हिंद महासागर में उच्च दाब का ! समुद्री उच्च वायुदाब से हवाएं जलवाष्प  लाकर  निम्न दाब की  और आती हैं जिसकी वजह से भारतीय उप-महाद्वीप के ऊपर जमकर वर्षा होती है !
वहीँ एलनीनो सिद्धांत के अनुसार दक्षिण अमेरिका के पेरू तट  पर चलने वाली गर्म जलधारा (एलनीनो ) का प्रभाव भारतीय मानसून पर पड़ता है !इस गर्म जलधारा की  वजह से हिंद महासागर में बनने वाला उच्च वायुदाब  कमजोर हो जाता है ! जिस कारण मानसून का प्रभाव कम हो जाता है !

मेरा मन फिर से एक बार बेचैन होने लगा क्या मेरी कविता पूरी न हो पाने का कारण ये कमबख्त एलनीनो है ?

Friday, July 6, 2012

वेतन पाने के लिए धरना - प्रदर्शन


बिहार सरकार  द्वारा संविदा पर बहाल शिक्षा कर्मियों को   वेतन भुगतान एवं वेतन  बढ़ोतरी का  लाभ  नही  मिलने के कारण  बिहारीगंज  में नियोजित  शिक्षकों द्वारा प्रखंड  संसाधन केंद्र में ताला जड़ कर विरोध किया गया !



 विदित हो कि इन शिक्षकों को बिहार सरकार द्वारा अकुशल मजदूरों के लिए तय की गई न्यूनतम मजदूरी 119 रुपिये प्रतिदिन से थोड़ा सा अधिक 200 रुपिये प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी दी जा रही है ! इतनी कम मजदूरी  के  बाद भी इन्हें अपना वेतन समय पर नहीं मिल पाता है जिस कारण इनके परिवार की माली हालत काफी बदतर हो रही है !इन  शिक्षकों से अधिक किस्मत वाले मनरेगा मजदूर हैं जिन्हें कम करने के 15 दिन  बाद मजदूरी गारंटी स्वरूप मिल जाती है , जबकि ये शिक्षक वेतन हेतू बी आर सी कार्यालय के चक्कर लगाते लगाते  थक जाते हैं !


समस्या सिर्फ बिहारीगंज की ही नहीं है , बल्कि बिहार के सभी प्रखंडों की कमोबेश यही स्थिति है ! एक तरफ हमारी सरकार शिक्षा को  बेहतर बनाने की  दिशा में नित नए नए प्रयोग  कर रही है  , जबकि शिक्षण व्यवस्था के मूल घटक (शिक्षक ) को सम्मानजनक वेतन एवं मूलभूत सुविधाएँ मुहैया कराने से भी परहेज कर रही है !


 आये दिन  हमें यह सुनने को मिलता है की अमुक  स्कूल में शिक्षक अनुपस्थित पाए गए !  यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान युग  अर्थयुग है !आर्थिक सुरक्षा का प्रश्न इस समय हर किसी के भविष्य के लिए  सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है ! महत्वपूर्ण विचारनीय प्रश्न यह है कि  इस मंहगाई के दौर में  6000 रुपिये से कैसे कोई एक परिवार के लिए महीने भर का बजट बनाये जिसमे भोजन , वस्त्र , आवास , स्वस्थ्य , शिक्षा ,के खर्च को शामिल किया जा सके !


स्वाभाविक है कि  इन परिस्थितियों में शिक्षकों का विद्द्यालय के प्रति आध्यात्मिक एवं मानसिक लगाव नहीं बन पायेगा  , और ऐसी परिस्थिति में सरकार  द्वारा शिक्षा के  क्षेत्र में किये जा रहे सारे प्रयोग ( शिक्षक डायरी , सतत एवं व्यापक मूल्यांकन ) असफल ही साबित होंगे !

Tuesday, June 12, 2012

मत छीनो मुझसे मेरा बचपन ...!

खुशियों के बसेरे में, मैं भी जीना चाहता हूं,

महसूस करना चाहता हूं बचपन की मौज-मस्ती,

तारों की टिमटिमाहट मैं भी देखना चाहता हूं,

आखिर मैं भी पढ़ना चाहता हूं,

आखिर मैं भी पढ़ना चाहता हूं…………..



World Day Against Child Labour

बचपन जिंदगी का सबसे सुहाना और यागदार सफर होता है. बचपन की मौज-मस्ती को इंसान मरते दम तक याद रखता है. मां की ममता, पिता का स्नेह, दोस्तों का साथ, स्कूल की मौज शायद इन्हीं यादों में बचपन कब बीत जाता है कोई जान ही नहीं पाता. लेकिन बचपन की यादें हर किसी के लिए सुहानी नहीं होतीं. कई लोगों के लिए बचपन एक अभिशाप होता है. जिस बचपन को लोग वरदान मानते हैं वह अभिशाप कैसे हो सकता है? अगर यह जानना है तो उस बच्चे की मार्मिक कहानी पर एक नजर अवश्य डालिए जो आपके घर के बाहर के ढाबे या चाय वाले के यहां बर्तन धोता है, कड़वी बचपन की यादों का स्वाद उस बच्चे को ही पता होता है जो रेलवे स्टेशनों पर पड़ी प्लास्टिक की बोतलों को इकठ्ठा करता है.

Chil LabourWorld Day Against Child Labour

आज बाल श्रम निरोध दिवस है. साल के कई सौ दिनों में से एक जिसे समाज के बुद्धिजीवियों ने उन बच्चों के नाम किया है जो बचपन की मौज मनाने की बजाय श्रम करते हैं. हम लोग जब भी किसी मीटिंग या सामाजिक स्थल पर बैठे होते हैं तो समाज के बारे में बड़ी-बड़ी बाते करने से पीछे नहीं हटते. बाल श्रम भी एक ऐसा ही टॉपिक है जिस पर लोग अक्सर किसी चाय वाले के पास बैठकर लंबा भाषण देते हैं और फिर आवाज लगाते हैं “ओए छोटू ग्लास ले जा.”

World Day Against Child Labour

बड़ी-बड़ी बातें, बड़े-बड़े नारे लगाने के बाद भी बाल श्रमिकों की हालत आज भी वैसी ही है जैसे पहले थी. भारत समेत लगभग सभी विकासशील देश और यहां तक की विकसित देशों में भी आपको बाल श्रम देखने को मिलेगा. चाय वाले की दुकान हो या कोई होटल और तो और भारत में तो बाल श्रमिकों का एक बड़ा हिस्सा चूड़ी बनाने, पटाखा बनाने और अन्य खतरनाक कामों में भी लिप्त है. इन बच्चों को चंद पैसा देकर इनके मालिक इनसे जरूरत से ज्यादा काम कराते हैं. कम पैसे में यह बच्चे अच्छी मजदूरी देते हैं और ज्यादा आवाज भी नहीं उठाते, यही वजह है कि ऐसे कारखानों के मालिक बच्चों को शोषित करने का कोई भी मौका नहीं गंवाते.

World Day Against Child Labour

सैकड़ों बचपन असमय ही हाथों में कलम के बदले पेट की आग बुझाने के लिए किसी होटल में जूठन धोने, ईट भट्ठा में ईट ढोने, खेतों में मिट्टी काटने, साइकिल दुकानों अथवा मोटर गैराजों में मजदूरी करने में बीत रहा है. बाल श्रम अधिनियम बनने के बाद भी बाल श्रमिकों पर अंकुश नहीं लग पा रहा है. होटल, ढाबों, उद्योगों और कारखानों में बाल श्रमिकों को काम करते देखा जा सकता है. जबकि श्रम विभाग इस ओर मूकदर्शक बना है.


Government report on child
योजना आयोग (भारत सरकार ) के  अनुसार वर्तमान समय में लगभग 49 लाख बाल श्रमिक भारत में कार्यरत हैं , जबकि सरकार के पास उपलब्ध गैर सरकारी संगठनो द्वारा दिए गए आंकड़ो के अनुसार यह संख्या 24 करोड़ से ऊपर बताई जा रही है !
 

बाल श्रम (प्रतिबंध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986

बाल श्रम (उन्‍मूलन और विनियमन) अधिनियम, 1986 चौदह वर्ष से कम उम्र के बच्‍चों को 18 प्रकार के कारखानों तथा 65 प्रक्रियाओं में नियोजन पर प्रतिबंध लगाया गया  है ,और कुछ अन्‍य रोज़गारों में उनके काम की स्थितियों को विनियमित करने के लिए अधिनियमित किया गया था.


बाल श्रम प्रतिबंधित एवं विनिमय अधिनियम की धारा तीन के अतिरिक्त प्रावधानों पर एक माह की सजा और एक हजार का जुर्माने का प्रावधान है. लेकिन इसके बाद भी बाल श्रम रुकने का नाम नहीं ले रहा है. सरकार ने कानून से विरक्त हुए बच्चों के लिए बाल श्रमिक स्कूल भी खोले हैं लेकिन वह भी निरर्थक ही साबित हो रहे हैं.


श्रम विभाग अगर कड़ाई से कानून का पालन कराए और श्रम कराने वाले अभिभावकों व काम लेने वाले मालिकों को समझाने का अभियान छेड़ दे तो कुछ बात बन सकती है. लेकिन समाज के इस वर्ग की किसी को खास परवाह नहीं है. सरकार के पास देखने के लिए और भी कई मुद्दे हैं और श्रम विभाग को बाल श्रमिकों से पैसे तो मिलते नहीं जो उनकी मदद करे. आज बाल श्रमिक निषेध दिवस पर उम्मीद है सरकार और जनता का ध्यान इस ओर जरूर जाएगा.
विलखता बचपन
छोटे से बचपन पर दण्डों की भरमार
होता था नित्य बचपन पर प्रहार !
न कोई कापी न कोई रेट
छोटा सीना लम्बा सा पेट !
बेचारा 'सुरना' भूख की तंगियों से
आ पड़ा था अपने गाँव की गलियों से!
कभी बर्तन को घिसना कभी चौका लगाना
थक पड़े अगर तो वही दंड पुराना !
बदन में घमौरी आँखों में पानी
ये कैसी विडंबना है ये कैसी है कहानी ...?







Monday, June 4, 2012

मेरे बच्चे अभी बहुत छोटे हैं लेकिन उनके साथ बिताए हर पल मेरी आंखों के सामने आ गए. तीन महीने पहले बुखार से तप रहे तीन साल के बेटे की दवाई लाने के लिए रात के एक बजे अपने घर से पंद्रह किलोमीटर दूर जाना, अंजानी सडकों में कैमिस्टों की खुली दुकानें टटोलते खाली हाथ वापस आना और रातभर गीली पट्टी करते हुए सुबह डॉक्टर के क्लीनिक खुलने का इंतज़ार करना......
ऐसे में मुझे बरबस मेरे पिता याद आते रहे… और मम्मी का मुझे अक्सर यह बतलाना कि कैसे बचपन में मेरी सलामती के लिए दोनों रात-रात भर जागते रहे
थे......

और फिर मुझे बार-बार यह भी याद आता रहा कि न जाने कितने ही मौकों पर मैंने जानते हुए उनका दिल दुखाया… अनजाने की तो कोई गिनती भी न होगी.

आप शायद समझ रहे होंगे मेरे भीतर क्या चल रहा है. एक दिन मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा और उस समय के लिए मैं अपने बच्चों से आज यही कहना चाहूंगा :-

“मेरे प्यारे बच्चों,

जिस दिन तुम्हें यह लगे कि मैं बूढ़ा हो गया हूं, तुम खुद में थोड़ा धीरज लाना और मुझे समझने की कोशिश करना…

जब खाना खाते समय मुझसे कुछ गिर जाए… जब मुझसे कपड़े सहेजते न बनें… तो थोड़ा सब्र करना, मेरे बच्चों…और उन दिनों को याद करना जब मैंने तुम्हें
यह सब सिखाने में न जाने कितना समय लगाया था.

मैं कभी एक ही बात को कई बार दोहराने लगूं तो मुझे टोकना मत. मेरी बातें सुनना. जब तुम बहुत छोटे थे तब  हर रात मुझे एक ही कहानी बार-बार सुनाने
के लिए कहते थे, और मैं ऐसा ही करता था जब तक तुम्हें नींद नहीं आ जाती थी.

अगर मैं कभी अपने को ठीक से साफ न कर पाऊं तो मुझे डांटना नहीं… यह न कहना कि यह कितने शर्म की बात है…तुम्हें याद है जब तुम छोटे थे तब तुम्हें अच्छे से नहलाने के लिए मुझे नित नए जतन करने पड़ते थे?

हर पल कितना कुछ बदलता जा रहा है. यदि मैं नया रिमोट, मोबाइल, या कम्प्यूटर चलाना न सीख पाऊं तो मुझपर हंसना मत… थोड़ा वक़्त दे देना… शायद मुझे यह सब चलाना आ जाए.

मैं तुम्हें ज़िंदगी भर कितना कुछ सिखाता रहा…अच्छे से खाओ, ठीक से कपड़े पहनो, बेहतर इंसान बनो, हर मुश्किल का डटकर सामना करो… याद है न?

बढ़ती उम्र के कारण यदि मेरी याददाश्त कमज़ोर हो जाए… या फिर बातचीत के दौरान मेरा ध्यान भटक जाए तो मुझे उस बात को याद करने को मौका ज़रूर देना. मैं कभी कुछ भूल बैठूं तो झुंझलाना नहीं… गुस्सा मत होना… क्योंकि उस समय तुम्हें अपने पास पाना और तुमसे बातें कर सकना मेरी सबसे बड़ी खुशी होगी… सबसे बड़ी पूंजी होगी.

अगर मैं कभी खाना खाने से इंकार कर दूं तो मुझे जबरन मत खिलाना. बुढ़ापे में सबका हिसाब-खिताब बिगड़ जाता है. मुझे जब भूख लगेगी तो मैं खुद ही खा
लूंगा.

एक दिन ऐसा आएगा जब मैं चार कदम चलने से भी लाचार हो जाऊंगा…उस दिन तुम मुझे मजबूती से थामके वैसे ही सहारा दोगे न जैसे मैं तुम्हें चलना सिखाता
था?

फिर एक दिन ऐसा भी आएगा जब मैं तुमसे कहूंगा – “मैं अब और जीना नहीं चाहता… मेरा अंत निकट है”. यह सुनकर तुम नाराज़ न होना… क्योंकि एक दिन
तुम भी यह जान जाओगे वृद्धजन ऐसा क्यों कहते हैं.

यह समझने की कोशिश करना कि एक उम्र बीत जाने के बाद लोग जीते नहीं हैं बल्कि अपना समय काटते हैं. 

एक दिन तुम यह जान जाओगे कि अपनी तमाम नाकामियों और गलतियों के बाद भी मैंने हमेशा तुम्हारा भले के लिए ही ईश्वर से प्रार्थना की.

अपने प्रेम और धीरज का सहारा देकर मुझे ज़िंदगी के आखरी पड़ाव तक थामे रखना. तुम्हारी प्रेमपूर्ण मुस्कान ही मेरा संबल होगी.

कभी न भूलना मेरे प्यारे बच्चों… कि मैंने तुमसे ही सबसे ज्यादा प्रेम किया.


Sunday, June 3, 2012

      अकेलापन
 यह अकेलापन
जैसे की बर्फीली फिजाएं ,
यह अकेलापन
जैसे अधूरी  कामनाएँ !
बस विरानियाँ ही ज़िन्दगी है
इनसे कोई कैसे बचाएं !
दूर तक सुनसान मंजर
हर तरफ बस रेत बंजर
जिनगी बोझिल सी लगती
देख न पता समंदर !
यह अकेलापन
जैसे की कोई एक परिंदा
 है कहाँ उसको जाना
उसका न कोई है ठिकाना
 बस हवाओं के सहारे
आसमा में ये बिचारे
 रात का  छाया अँधेरा
 अब कहाँ ढूंढे  बसेरा
बन जाये कोई सहारा
काब तलक न हो सवेरा !
 
यह अकेलापन
जैसे की उन्सुल्झी कथाएँ
जो कभी भी खत्म न हो
दे जो हर पल  ही व्यथाएँ
क्या हो मन की भावनाएं
जब कोई भी पास न हो
क्या करे कोई विरह
जब मिलन की आस  न हो !
 कैसा है अपना मुक्कद्दर
 जिसकी करुना हो न हम
 पर बस उसी की ठाणे
 ढूंढता उसको मैं दर दर !
यह अकेलापन
पीछा करती सी आत्माएं
 जो रूह बनकर डराती
बेचैनियों को संग लती
 इनसे तो बाचना है मुश्किल
हर घड़ी हर पल सताती !
यह अकेलापन 

जैसे कि कोई रात बैठी 
यादों की बारात बैठी
 दर्द के किस्से छुपाये
 एक अनकही सी बात बैठी !