Saturday, October 27, 2012

रोजगार के अवसर

 राज्य सरकार  द्वारा जीविका प्रोत्साहन योजना के अंतर्गत सामुदायिक समन्वयक एवं क्षेत्रीय समन्वयक के पदों पर ऑनलाइन  आवेदन मांगे जा रहें हैं ! अधिक जानकारी के लिए  नीचे लिखे लिंक पर क्लिक  करें -

                                                     


                                                                         http://jobs.brlps.in

भ्रष्टाचारमुक्त भारत की शर्ते


पिछले कुछ अरसे से देशभर में भ्रष्टाचारी ताकतों से मुक्ति के लिए बेचैनी का बढ़ना स्वागत की बात है. लेकिन भ्रष्टाचार से मुक्ति को लेकर जनमानस और जानकार तीन समूहों में बंट गये लगते हैं. पहला समूह ऐसे उत्साही और सक्रिय आदर्शवादियों का है, जो यह मानते हैं कि भ्रष्टाचार का मूल आधार संपन्न वर्गो, अफसरों और नेताओं की तिकड़ी है. इनको काबू में लाने वाले नियमों व कानूनों से हम भ्रष्टाचार मुक्त भारत बना सकते हैं.


दूसरा समूह ऐसे मध्यमार्गियों का है, जिनका मानना है कि भ्रष्टाचार की जड़ें मनुष्य की कुछ बुनियादी कमजोरियों में हैं. जैसे लोभ, भोगवासना, सत्ता की भूख आदि. इसीलिए भ्रष्टाचार का निमरूलन तो आदर्श स्थिति में ही संभव है. हमारे दैनिक जीवन में इसको निगरानी और नियंत्रण से कम किया जा सकता है और करना भी चाहिए. एक तीसरा समूह ऐसे लोगों का है, जिनकी दृष्टि में भ्रष्टाचार, संपत्ति और मुनाफे को आदर देने वाली पूंजीवादी व्यवस्था का अनिवार्य अंग है. इसमें मत्स्य न्याय ही चलता है. इसीलिए भ्रष्टाचार की चर्चा हमारा ध्यान कुछ बड़ी समस्याओं, जैसे- शोषण, विषमता और गरीबी, से हटाने की दोषी है. भ्रष्टाचार से लड़ना आग बुझाने की बजाय धुएं की शिकायत करना है.


इनमें से तीनों दृष्टियां आंशिक सत्य पर आधारित हैं. इनको मानने वालों को यह याद दिलाना प्रासंगिक होगा कि हमारा समाज शुभ व अशुभ शक्तियों के बीच खुली और छिपी टकराहट से ही आगे बढ़ता या पीछे फिसलता है. आज हमें सार्वजनिक जीवन में राष्ट्रहित की कीमत पर भ्रष्टाचार के बारे में चुप्पी रखने का अवकाश नहीं है, क्योंकि भ्रष्टाचारियों की छल-कपट से न सिर्फ विकासधारा अवरुद्ध है, बल्कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की तमाम संस्थाओं की जड़ें कमजोर हो रही हैं. अब भ्रष्टाचार का बढ़ना जन हितकारी लोकतंत्र की जड़ें कमजोर करना हो चुका है. इसीलिए इस देश को सक्रिय नागरिक हस्तक्षेप और रचनात्मक राजनीतिक सहमति की जरू रत है.


भ्रष्टाचार की चर्चा में यह दोष फैल चुका है कि कौन भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने का अधिकारी बचा है? मेरी समझ से इससे बड़ी नासमझी का कोई बयान नहीं हो सकता कि ‘हम सभी जिंदगी की जद्दोजहद में अपनी औकात व जरूरत के मुताबिक भ्रष्टाचार करने की प्रवृत्ति रखते हैं. फर्क मात्र और अनुपात का ही है. कोई खीरा चोर तो कोई हीरा चोर. पूरा समाज किसी न किसी स्तर पर दोषी है.’ असल में भ्रष्टाचार सार्वजनिक पद का निजीहित के लिए दुरुपयोग करना है. इसमें किसी सरकारी प्रमाणपत्र के लिए तहसील के बाबू को दस्तूरी देने या अस्पताल में इलाज के लिए नेता से डॉक्टर की पैरवी कराने को शामिल नहीं किया जा सकता. यह सब हमारी व्यवस्था संचालन के दोषों के परिणाम हैं और अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए आपदधर्म की मजबूरी के उपाय हैं.


अब प्रश्न यह उठता है कि भ्रष्टाचार की बाढ़ 90 के दशक से क्यों फैल रही है. इसके दो कारण लगते हैं. एक तो हमने उदारीकरण और वैश्वीकरण की दिशा में मुड़कर विषमता व संपन्नता के सहअस्तित्व वाली अभावपूर्ण व्यवस्था को खुली छूट दे दी है. दूसरे, राजीव गांधी के सत्ता विकेंद्रीकरण संविधान संशोधन के बावजूद राजसत्ता के सूत्रधारों के हाथ में ताकत का केंद्रीकरण हुआ है. इसके परिणामस्वरूप सत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ कर संपत्ति बटोरना बहुत आसान हो गया है. इसे रतन टाटा जैसे सम्मानित लक्ष्मी पुत्र ने ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ की संज्ञा दी है. अगर अभाव, विषमता, केंद्रीकरण और संपन्नता की एकजुटता भ्रष्टाचार के विषवृक्ष के लिए खाद का काम कर रही है, तो इसके निमरूलन के लिए इन्हीं चारों पहलुओं पर काम करने की जरूरत है. रोटी (खाद्य सुरक्षा) और रोजी (आजीविका सुरक्षा) के लिए आम लोगों को अवसर व साधन उपलब्ध कराना जरूरी हो चुका है. इसी के साथ पढ़ाई (शिक्षा का अधिकार) और दवा (स्वास्थ्य का अधिकार) को भी हमारे राष्ट्र निर्माण का बुनियादी तत्व बनना चाहिए. इसके साथ पानी, आवास की व्यवस्था, सामाजिक न्याय और आत्म सम्मान की सुरक्षा को जोड़ देने से करोड़ों लोगों को हम भ्रष्टाचार की हजारों छोटी-छोटी यातनाओं से बचा सकते हैं.


गत 65 वर्ष में कांग्रेस-गैर कांग्रेस, स्त्री-पुरुष, सवर्ण-अवर्ण, उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम, एक दल-बहुदल, नेता-प्रोफेसर, हर तरह के नुस्खे आजमाये गये हैं. और हर परिवर्तन से भ्रष्टाचार का बुखार एक डिग्री ऊपर ही चढ़ता गया है, ऐसा क्यों?