Monday, October 5, 2015

भारत में गौ हत्या : कब और कैसे पाप बना ?

******इतिहासकार डी. एन. झा के शोध पर आधारित ********

लोगों ने ये ग़लत धारणा बना रखी है कि भारत में सिर्फ मुसलमान ही हैं जो गोमांस खाते हैं. यह बिल्कुल ही निराधार सोच है क्योंकि इसका कोई भी ऐतिहासिक आधार नहीं है.
वैदिक साहित्य में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि उस दौर में भी गोमांस का सेवन किया जाता था. जब यज्ञ होता था तब भी गोवंश की बली दी जाती थी.
उस वक़्त यह भी रिवाज था कि अगर मेहमान आ जाए या कोई ख़ास व्यक्ति आ जाए तो उसके स्वागत में गाय की बली दी जाती थी.

पढ़ें विस्तार से


गाय, भारत

शादी के अनुष्ठान में या फिर गृह प्रवेश के समय भी गोमांस खाने-खिलाने का चलन आम हुआ करता था. ये गुप्तकाल से पहले की बात है.
गोहत्या पर कभी प्रतिबंध नहीं रहा है लेकिन पांचवीं सदी से छठी शताब्दी के आस-पास छोटे-छोटे राज्य बनने लगे और भूमि दान देने का चलन शुरू हुआ.
इसी वजह से खेती के लिए जानवरों का महत्व बढ़ता गया. ख़ासकर गाय का महत्व भी बढ़ा. उसके बाद धर्मशास्त्रों में ज़िक्र आने लगा कि गाय को नहीं मारना चाहिए.

सज़ा का प्रावधान


गाय, भारत

धीरे-धीरे गाय को न मारना एक विचारधारा बन गई, ब्राह्मणों की विचारधारा. साथ ही एक दूसरी चीज़ भी होती रही.
पांचवीं-छठी शताब्दी तक दलितों की संख्या भी काफ़ी बढ़ गई थी. उस वक़्त ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्रों में यह भी लिखना शुरू किया कि जो गोमांस खाएगा वो दलित है.
उसी दौरान सज़ा का भी प्रावधान किया गया, यानी जिसने गोहत्या की उसे प्रायश्चित करना पड़ेगा.
फिर भी ऐसा क़ायदा नहीं था कि गोहत्या करने वाले की जान ली जाए, जैसा आज कुछ लोग कह कर रहे हैं. लेकिन गोहत्या को ब्रह्म हत्या की श्रेणी में रखा गया.
इसके बावजूद भी इसके लिए किसी कड़ी सज़ा का प्रावधान नहीं किया गया.

अपराध


गाय, भारत

सज़ा के तौर सिर्फ इतना तय किया गया कि गोहत्या करने वाले को ब्राह्मणों को भोजन खिलाना पड़ेगा.
धर्मशास्त्रों में यह कोई बड़ा अपराध नहीं है इसलिए प्राचीनकाल में इसपर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया गया.
हाँ, अलबत्ता इतना ज़रूर हुआ मुग़ल बादशाहों के दौर में कि राज दरबार में जैनियों का प्रवेश था, इसलिए कुछ ख़ास ख़ास मौक़ों पर गोहत्या पर पाबंदी रही.

अभियान


गाय, भारत

सारा विवाद 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ जब आर्य समाज की स्थापना हुई और स्वामी दयानंद सरस्वती ने गोरक्षा के लिये अभियान चलाया.
और इसके बाद ही ऐसा चिह्नित कर दिया गया कि जो 'बीफ़' बेचता और खाता है वो मुसलमान है.
इसी के बाद साम्प्रदायिक तनाव भी होने शुरू हो गए. उससे पहले साम्प्रदायिक दंगे नहीं होते थे.
वैसे गोवंश की एक पूजा होती है जिसका नाम 'गोपाष्टमी' है. इसके अलावा गाय के लिए अलग से कोई मंदिर नहीं होते.
कहीं किसी ने मंदिर बना लिए हों तो अलग बात है. मंदिर तो फ़िल्मी सितारों के भी बनाए गए हैं.

बीफ पर रोक!


गाय, भारत

मूल सवाल यह है कि राज्य यानी सरकार खाने पर अपना क़ानून चला सकती है या नहीं?
जब आप यह कहते हैं कि देश के बहुसंख्यकों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए बीफ पर प्रतिबंध लगाना चाहिए तो आप इन्हीं में से एक वर्ग की भावनाओं को ठेस भी पहुंचा रहे हैं.
वहीं एक दूसरे वर्ग के खान-पान पर आप अतिक्रमण भी कर रहे हैं. देश में दलित बीफ़ खाते हैं और खुलेआम खाते हैं, आदिवासी खाते हैं.
दक्षिण भारतीय राज्य केरल में ब्राह्मणों को छोड़कर बाक़ी सब खाते हैं. तमिलनाडु में भी एक बड़ा वर्ग है जो बीफ़ खाता है. ऐसा लगता है कि यह सरकार सिर्फ अंधविश्वास पर चल रही है.

Thursday, September 3, 2015

देवदसी प्रथा

देव दासियां, मंदिर में पुजारिओं सहित नगरसेठों आदि की कामतृप्ति करती थी। वेश्यावृति का आधार 'भूख' है। कोई पेट की भूख मिटाने के लिए इस धंधे में आती है, तो कोई पेट के नीचे की भूख मिटाने के लिए इनके संपर्क में आते हैं। विश्व का सबसे पुराना व्यापार देह व्यापार है।

ज्ञात इतिहास केञ् अनुसार भारत के मंदिरों की देवदासियां संभवतयाः पहली वेश्याएं थी, इसी प्रकार कोस्थि में एफ्रोडाइट के मंदिर तथा आर्मीनिया में एनाइतिस के मंदिर की हायरोड्यूल (मंदिर में रहने वाली दासियां) भी इसी काल की वेश्याएं थी, जो धन के बदले देह परोस पुरुष की काम तृप्ति करती, मिलने वाले धन को मंदिर के कोष में जमा करवा देती थी। यह देव दासियां, मंदिर में पुजारिओं सहित नगरसेठों आदि की कामतृप्ति करती थी। धर्म के नाम पर चलने वाला काम वासना का यह खेल मंदिरों से निकल नगर में वेश्यावृति के रूप में फैलने लगा। देवदासी प्रथा देवदासी प्रथा भारत के दक्षिणी पश्चिम हिस्से में सदियों से चले आ रहे धार्मिक उन्माद की उपज है। जिन बालिकाओं को देवी-देवता को समर्पित किया जाता है, वह देवदासी कहलाती हैं। देवदासी का विवाह देवी-देवता से हुआ माना जाता है, वह किसी अन्य व्यक्ति से विवाह नहीं कर सकती। सभी पुरुषों में देवी-देवता का अक्श मान उसकी इच्छा पूर्ति करती हैं। 

देवदासी प्रथा भारत में आज भी महाराष्ट्र और कर्नाटक के कोल्हापुर, शोलापुर, सांगली, उस्मानाबाद, बेलगाम, बीजापुर, गुलबर्ग आदि में बेरोकटोक जारी है। कर्नाटक के बेलगाम जिले के सौदती स्थित येल्लमा देवी के मंदिर में हर वर्ष माघ पुर्णिमा जिसे 'रण्डी पूर्णिमा' भी कहते है, के दिन किशोरियों को देवदासियां बनाया जाता है। उस दिन लाखों की संख्या में भक्तजन पहुँच कर आदिवासी लड़कियों के शरीर के साथ सरेआम छेड़छाड़ करते हैं। शराब के नशे में धूत हो अपनी काम पिपास बुझाते हैं। नारी देह, पुरुष के लिए सदैव आकर्षण का केंद्र रही है। समुंद्र मन्थन के दौरान अमृत कलश दैत्यों के हाथ लग गया, तब दैत्यों से अमृत कलश वापिस लेने के लिए सुंदर नारी का रूप धरे भगवान विष्णु के यौवन पर मुग्ध हो असूरों ने अमृत कलश उन्हें सौंप दिया।

महाभारत काल के दौरान तो वेश्याओं का वर्गीकरण भी किया गया जैसे राज वेश्या, नगर वेश्या, गुप्त वेश्या (सफेदपोश, कालगर्ल की भांति) देव वेश्या (देववासी) ब्रह्मा वेश्या (तीर्थ स्थान पर रहने वाली) आदि। प्राचीन काल से ही नारी यौवन पुरुषों केञ् बीच युद्ध का विषय बना रहा है। इस प्रकार के युद्ध को विराम देने के लिए एक निर्णय लिया गया कि जिस यौवना के कारण युद्ध छिड़ा हो उसे नगरवधु की उपाधि देकर सामुहिक भोग की वस्तु बना दिया जाए। आम्रपाली इसी कारण नगरवधु बनने को मजबूर हुई। नगरवधु की एक रात्रि की कीमत अत्याधिक होने के कारण नगर के चंद साहूकार ही उसका रसपान कर पाते थे। लेकिन सम्राट अशोक के काल की प्रख्यात नगरवधु आम्रपाली से चुनिदां किशोरियों को परीक्षण दिलवाया जाता था और चौसठ कलाओं में पारंगत होने पर उन्हें पेशे में उतार दिया जाता था। उनकी देह की कीमत नगरवधु से कम आंकी जाती थी। उन दिनों वेश्याएं समाज की सम्मानित नागरिक होती थी। इन्हें जनपद कल्याणी भी कहा जाता था। ये वेश्याएं केवल मनोरंजन ही नहीं करती थी, अपितू राजा की सलाहकार, सहचरी व गुप्तचर भी होती थी। मदनमाला, चित्रलेखा (चंद्रगुप्त मौर्य की सहचरी), चंद्रसेना (अशोक की सहचरी), देवरक्ता (हर्षवर्धन की सहचरी) के अतिरिक्त वसन्तसेवा, महानंदा, पिंगला आदि अनेक नाम उल्लेखनीय हैं।

मुगल बादशाह के जमाने में लगभग दस लाख परिवार कोठा संस्कृति के पेशे से ही बसर करते थे, देश में इनकी बाढ़ का प्रमुख कारण सिकंदरs की सेना द्वारा स्त्रियों के साथ मनमानी करना था। इनकी तुलना पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा शोषित बांग्लादेश की उन सोनार युवतियों से कर सकते हैं, उनमें से अधिकांश महिलाएं अब कलकता व मुंबई के कोठों पर दम तोड़ रही है। मुगल साम्राज्य के अन्तिम बादशाह ओरंगजेब ने गद्दीशीन होते ही अपने किले सहित सभी वजीरों, नवाबों के हरम खाली करवा दिए। हरम से निकाली गई युवतियों को बाहरी दुनियां के बारे में ज्यादा ज्ञान नहीं होता था। हरम में तो वे अपने सरनाम मालिक के अलावा किसी अन्य पुरुष का चेहरा तक भी नहीं देख पाती थी, क्योंकि हरम के पहरेदार भी ख्वाजा (हिजड़े) होते थे। हरम से निकली युवतियां यहां-वहां कोठों पर बैठ धंधा करने लगी। अंग्रेजों ने भी राजा महाराजाओं को ऐय्याश बनाए रखने के लिए वेश्याओं की सेवाओं का भरपूर प्रयोग कर अपना उल्लू सीधा किया। इतना ही नहीं अंग्रेजों ने अपने सैनिकों व कर्मचारियों के लिए कुछ विशेष कोठे सुरक्षित भी कर लिए थे।

1947 में देश आजाद हुआ। देश का बटवांरा, राजनीतिक उठापटक, भ्रष्टस्नचार, नाकाम न्याय व्यवस्था, मंहगाई, बेरोजगारी ने इतनी बहू-बेटियों को वेश्या बना डाला, जितनी पहले कभी नहीं बनीं। चूल्हे की आग जलाने हेतू गरीब युवतियां सफेदपोश पैसे वाले 'इज्जतदार' लोगों के जिस्म की आग को शांत कर मजबूरन गुप्त वेश्याएं बन गई। स्वतंत्र भारत के संविधान के अनुसार वेश्यावृति पर कानूनन प्रतिबंध है, लेकिन इसका कोई असर देखने को नहीं मिलता। ताजा स्थिति यह हो गयी है कि कई शहरों में तो कोठों के बाजारों के अलावा अनेक बस्तियां भी है, जहां घर-घर में देह व्यापार पुलिस के कथित सरंक्षण में होता है। जबरन वेश्यावृति के धन्धे में धकेली गई युवतियों की स्थिति बद् से बद्तर होती है। जिन्हें अपने पेट की भूख मिटाने केञ् लिए एक रात में बीस-बीस, तीस-तीस 'मर्दों' को शरीर बेचना पड़ता है। फिर भी उसको भरपेट अच्छा भोजन नसीब नहीं होता। यह सब हमारे भारत देश में ही संभव है।

रिपोर्टों के अध्ययन से निष्कर्य निकलता है कि अधिकांश वेश्यावृति में धकेली गई युवतियां भूख की मारी हुई हैं। बेसहारा, बलात्कार की शिकार व अपहृताएं होती है। जिन्हें एक-एक कमरे में जानवरों की तरह रखा जाता है। इन बेदम, लाचार, निर्जीव सी नारियों को नारी कहना विचित्र सा लगता है। क्या शेष है उनमें जिसे एक सामाजिक बोध के साथ नारी कहा जाए? भयंकर आर्थिक शोषण और उत्पीड़न के इन मूर्त रूपों को देखकर अपने समाज के विरुद्ध मन आक्रोश से भर जाता है। वेश्याओं की दूसरी श्रेणी में वे वेश्याएं आती है जो अपनी वर्तमान आर्थिक स्थिति को बेहतर करने के लिए वेश्यावृति करती हैं। मध्यवर्गीय परिवार से संबधित ये महिलाएं दलालों के माध्यम से ही धंधा करती हैं। इनका कार्यक्षेत्र आसपास की रिहायशी कालोनियों तक ही सीमित होता है। कुछ महिलाएं अति महत्वाकांक्षी प्रवृति की होती हैं। इसमें वह कामकाजी महिलाएं शामिल हैं जो शार्टकट से तरक्की पाने को वेताब रहती हैं। वे बॉस को अपने रूप-यौवन के जाल में फांसकर योग्य कर्मचारियों को पछाड़ तरक्की पाने में सफल हो जाती हैं। उन्नति पाने के लिए किसी भी हद को पार करने पर राजी हो जाती हैं। ऐसी महिलाओं को वेश्या कहना वेश्याओं का अपमान करना है। वेश्याओं का वर्ग ऐसा भी है, जिनके पास अच्छे वस्त्र, प्रसाधन की सुविधा है, स्थान है और अपनी एक विशिष्ट समाजिक पहचान भी है। गायन, वादन, सौंदर्य के आकर्षण में बांध ग्राहक को सम्मोहित करती है।

वर्तमान समय में देह व्यापार भी हाईटैक हो गया है। इन्टरनेट, मोबाइल पर वेश्याएं आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। दोस्ती के नाम पर राष्ट्रीय समाचार पत्रों में छपे विज्ञापन वास्तव में देह व्यापार की ओर इशारा करते हैं। नादान व कामुक प्रवृति की कॉलेज छात्राएं आधुनिकता के नाम पर इस धन्धे से संलिप्त हो जाती है। शुरूआती दौर में ये अपने पुरुष मित्रों से शारिरीक मित्रता होने पर उपहार लेती हैं, लेकिन पुरुष मित्रों की संख्या बढ़ने के साथ-2 उपहार, नकद राशि में तब्दील हो जाता है। ऐसी किशोरावस्था वेश्याओं का अन्त बहुत बुरा होता है। छोटे-छोटे ढ़ाबों से लेकर फाइव स्टार होटलों में कालगर्ल्स का जाल फैला हुआ है जो दलालों के माध्यम से बड़ी आसानी से उपल्बध हो जाती हैं। 

Friday, August 28, 2015

आरक्षण क्यों : -


नवभारत टाइम्स के ब्लॉग पर आरक्षण के विषय में कुछ लेख पढ़ने को मिले और उन्ही लेखों ने मुझे ये लेख लिखने को प्रेरित किया , जब बात आरक्षण की होती है तो सब भारतीय संविधान द्वारा अनुसूचित-जाती, जनजाति एवं अतिपिछड़ा वर्ग को मिले उस आरक्षण या विशेष अधिकारों की ही बात करतें हैं जिन्हें लागू हुए मुश्किल से 60 वर्ष ही हुए हैं ,कोई उस आरक्षण की बात नही करता जो पिछले 5000 वर्षों से भारतीय समाज में लागू थी
जिसके कारण ही इस आरक्षण को लागू करने की आवश्यकता पड़ी आज ''भारतीय गणराज्य का संविधान'' नामक संविधान, जिसका हम पालन कर रहें है जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ उससे पहले जो संविधान इस देश में लागू था जिसका पालन सभी राजा-महाराजा बड़ी ईमानदारी से करते थे उस संविधान का नाम था ''मनुस्मृति''
आधुनिक संविधान के निर्माता अंबेडकर ने सबसे पहले 25 दिसंबर 1927 को हज़ारों लोगों के सामने इस ''मनुस्मृति'' नामक संविधान को जला दिया ,क्यूंकी अब इस संविधान की कोई आवश्यकता नही थी भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान इसलिए दिया गया क्यूंकी इस देश की 85 प्रतिशत शूद्र जनसंख्या को कोई भी मौलिक अधिकार तक प्राप्त नही था
,सार्वजनिक जगहों पर ये नही जा सकते थे मंदिर में इनका प्रवेश निषिध था सरकारी नौकरियाँ इनके लिए नहीं थी , ये कोई व्यापार नही कर सकते थे , पढ़ नहीं सकते थे , किसी पर मुक़दमा नही कर सकते थे , धन जमा करना इनके लिए अपराध था , ये लोग टूटी फूटी झोपड़ियों में, बदबूदार जगहों पर, किसी तरह अपनी जिंदगिओं को घसीटते हुए काट रहे थे और यह सब ''मनुस्मृति'' और दूसरे हिंदू धर्मशास्त्रों के कारण ही हो रहा था कुछ उदाहरण देखिए-
1.संसार में जो कुछ भी है सब ब्राह्मानो के लिए ही है क्यूंकी वो जन्म से ही श्रेष्ठ है(मनुस्मृति 1/100)
2.स्वामी के द्वारा छोड़ा गया शूद्र भी दासत्व से मुक्त नही क्यूंकी यह उसका कर्म है जिससे उसे कोई नही छुड़ा सकता (8/413)
3.यदि कोई नीची जाती का व्यक्ति ऊँची जाती का कर्म अपना ले तो राजा उसे देश निकाला देदे (10/95)
4.बिल्ली, नेवला चिड़िया मेंढक, गढ़ा, उल्लू, और कौवे की हत्या में जितना पाप लगता है उतना ही पाप शूद्र (अनुसूचितजाती, जनजाति एवं अतिपिछड़ा वर्ग) की हत्या में है (मनुस्मृति 11/131)
5.शूद्र का धन ब्राह्मण निर्भीक होकर छीन सकता है क्यूंकी उसको धन रखने का अधिकार नही (8/416)
6. सब वर्णों की सेवा करना ही शूद्रो का स्वाभाविक कर्तव्य है (गीता,18/44)
7. जो अच्छे कर्म करतें हैं वे ब्राह्मण ,क्षत्रिय वश्य, इन टीन अच्छी जातियों को प्राप्त होते हैं जो बुरे कर्म करते हैं वो कुत्ते, सूअर, या शूद्र जाती को प्राप्त होते हैं (छान्दोन्ग्य उपनिषद् ,5/10/7)
8. पूजिए विप्र ग्यान गुण हीना, शूद्र ना पूजिए ग्यान प्रवीना,(रामचरित मानस)
9.ब्राह्मण दुश्चरित्र भी पूज्‍यनीए है और शूद्र जितेन्द्रीए होने पर भी तरास्कार योग्य है (पराशर स्मृति 8/33)
10. धार्मिक मनुष्या इन नीच जाती वालों के साथ बातचीत ना करें उन्हें ना देखें (मनुस्मृति 10/52)
11. धोबी , नई बधाई कुम्हार, नट, चंडाल, दास चामर, भाट, भील, इन पर नज़र पद जाए तो सूर्य की ओर देखना चाहिए इनसे बातचीत हो जाए तो स्नान करना चाहिए (व्यास स्मृति 1/11-13)
12. अगर कोई शूद्र वेद मंत्र सुन ले तो उसके कान में धातु पिघला कर डाल देना चाहिए- गौतम धर्म सूत्र 2/3/4....
ये उन असंख्य नियम क़ानूनों के उदाहरण मात्र थे, जो आज़ाद भारत से पहले देश में लागू थे ये अँग्रेज़ों के बनाए क़ानून नहीं थे ये हिंदू धर्म द्वारा बनाए क़ानून थे जिसका सभी हिंदू राजा पालन करते थे प्रारंभ में तो इन्हें सख्ती लागू करवाने के लिए सभी राजाओं के ब्राह्मणों की देख रेख में एक विशेष दल भी हुआ करता था
इन्ही नियमों के फलस्वरूप भारत में यहाँ की विशाल जनसमूह के लिए उन्नति के सभी दरवाजे बंद कर दिए गये या इनके कारण बंद हो गये, सभी अधिकार, या विशेष-अधिकार, संसाधन, एवं सुविधायें कुछ लोगों के हाथ में ही सिमट कर रह गईं, जिसके परिणाम स्वरूप भारत गुलाम हुआ
भारत की इस गुलामी ने उन करोड़ों लोगों को आज़ादी का अवसर प्रदान किया जो यहाँ शूद्र बना दिए गये थे , इस तरह धर्मांतरण का सिलसिला शुरू हुआ , बड़ी संख्या में लोगों ने इस्लाम ईसाइयत को अंगीकार किया , अंग्रेज़ो के शासन काल में उन्नीस्वी सदी के प्रारंभ से यहाँ पुनर्जागरण काल का उदय हुआ जिसके नायक यहीं के उच्च वर्गिए लोग थे जो अँग्रेज़ी शिक्षा, संस्कृति से प्रभावित हो कर देश में बदलाव लाने को प्रयत्नशील हुए ,
सती प्रथा को समाप्त किया गया स्त्री शिक्षा के द्वार खोले गये , शूड्रों को नौकरियों में स्थान दिया जाने लगा और कितनी ही क्रूर प्रताओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया ,कई परिवर्थन्शील ,संगठनों का उदय हुआ ऐसे ही समय में अंबेडकर का जन्म हुआ , समाज में कई परिवर्तन हुए थे परंतु अभी भी शूड्रों के जीवन पर इसका कोई
अम्बेडकर का जीवन संघर्ष इस बात का उदहारण है , अम्बेडकर अपने समय के विश्व के पांच सबसे बड़े विद्वानों में से एक थे ,अपने जीवन के कड़े अनुभवों को ध्यान में रखकर उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन सदियों से हिन्दू धर्म द्वारा दलित, उत्पीडित बहुसंख्य जनों के उत्थान को समर्पित करते हुए लम्बे संघर्ष में लगा दिया , जिस कारण दुनिया को पहली बार भारत के इस महान अभिशाप का ज्ञान हुआ और पशुओं का जीवन व्यतीत कर रहे उन करोड़ों लोगों को स्वाभिमान से जीवन जीने की ललक पैदा हुई , उन्होंने अपने जीवन के कीमती कई वर्ष हिन्दू समाज, हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू धर्म शाश्त्रों के अध्यन में लगाये ,
अम्बेडकर के प्रयासों का ही नतीजा था की भारत के राजनैतिक और सामाजिक स्थिति का विश्लेषण करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने सात सदस्सिए साइमन कमीशन को भारत भेजा जिसका अम्बेडकर ने स्वागत किया लेकिन कांग्रेस ने इसका बहिस्कार कर दिया, और कांग्रेस वर्किंग कमिटी द्वारा १९२८ में नए संविधान की रूप रेखा तैयार की गई जिसके लिए सभी धर्म एवं सम्प्रदायों को बुलाया बुलाया गया लेकिन अम्बेडकर को इससे दूर रखा गया
१२ से १९ जनवरी १९३१ को गोलमेज की प्रथम कांफ्रेंस में पहली बार देश से बाहर अम्बेडकर ने अपने विचार रखे , और शूद्रो की सही तस्वीर पेश की इसी कांफ्रेंस में उन्होंने कानून के शाशन और शारीरिक ताकत की जगह संवैधानिक अनुशाशन की प्रतिष्ठा का दावा किया , सम्मलेन में जो ९ सब कमिटी बनी उन सभी में उन्हें सदस्य बना लिया गया , उनकी योग्यता उनके सारपूर्ण वक्तव्यों की वजह से यह संभव हो पाया, फ्रेंचाइजी कमिटी में उन्होंने दलितों के लिए अलग चुनाव क्षेत्र की मांग की और उनकी सभी मांगों को अंग्रेजी सरकार को मानना पड़ा
अम्बेडकर की इस अभूतपूर्व सफलता ने कांग्रेस की नींद हराम कर दी क्यूंकि सवर्णों की इस पार्टी को डर हुआ की सदियों से जिन्हें लातों तले दबा के रखा , उनसे अपने सभी गंदे से गंदे काम करवाए, अगर उन्हें सत्ता मिल गई तब तो हमारी आने वाली पीडिया बर्बाद हो जाएँगी , हमारा धर्म जो इनसे छीन कर हमें सारी सुविधाएं सदियों से देता आया है वो संकट में पड जायेगा , यही सब सोच कर कांग्रेस के इशारों पर गाँधी ने अम्बेडकर को मिले अधिकारों के विरूद्ध आमरण अनशन की नौटंकी शुरू कर दी , जिसके कारण अंत में राष्ट्र के दबाव में आकर अम्बेडकर को "POONA - PACT " पर हस्ताक्षर करने पड़े जिसके अनुसार अग्रिम संविधान बनाने का मौका अम्बेडकर को दिया जाना तय हुआ बदले में अम्बेडकर को गोलमेज में मिले अपने सभी अधिकारों को छोड़ना पड़ा
इस तरह वर्तमान संविधान का जो की मजबूरी में बना आधारशिला तैयार हुई जिसमें उन्होंने आरक्षण का प्रावधान डाला और दलितों के लिए सभी कानून बनाये अब जरा थोड़ी देर के लिए यह कल्पना कीजिये की अगर अम्बेडकर दलितों के लिए १०० प्रतिशत आरक्षण की मांग करते जो की उनका हक़ है तो क्या होता , परन्तु अम्बेडकर ने ऐसा नहीं किया ,
आज जब सरकारी नौकरियां वैश्वीकरण के नाम पर पूरे षड्यंत्र करी तरीके से समाप्त की जा रहीं हैं , ऐसे में शूद्र एक बार फिर हाशिये पर आगया है ,ऐसे में ये कहना की बचे खुचे आरक्षण को भी समाप्त कर दिया जाये एक बार फिर से शूद्र को गुलाम बनाने की सोची समझी साजिश ही तो है
आज जितने दलित अम्बेडकर के प्रावधानों के कारण सरकारी नौकरियों तक पहुचे हैं और सुख से दो जून की रोटी खा रहे हैं , उससे कहीं अधिक ब्रह्माण आज भी हिन्दू धर्म शाश्त्रों के सदियों पुराने प्रावधानों के कारण देश के लाखों मंदिरों में पुजारी बन अरबों-खरबों के वारे न्यारे कर रहे हैं और देश की खरबों की संपत्ति पर कब्ज़ा जमाये बैठे हैं क्या किसी ने इस आरक्षण को समाप्त करने की बात की....?
क्या किसी ने आज भी दलितों पर होने वालें अत्याचारों को रोकने के लिए आमरण अनशन किया ? क्या किसी ने मिर्च पुर, गोहाना, खैरलांजी,झज्जर,के आरोपियों के लिए फांसी की मांग की ? क्यूँ नहीं पहले ब्रह्माण क्षत्रिय और वैश्य अपने अपने जातीय पहचानों को समाप्त करते ? जाती स्वयं नष्ट हो जाएगी जाती नष्ट होते ही आरक्षण की समस्या सदा के लिए नष्ट हो जाएगी ,ऊपर की जाती वाले क्यूँ नहीं अपने बच्चों की शादियाँ दलितों के बच्चों संग करने की पहल करते ? लेकिन यहाँ तो बात ही दूसरी है इनके बच्चे अगर दलितों में प्रेम विवाह करना चाहें तो ये उनका क़त्ल कर देते हैं धन्य हैं
एक दलित मित्र अपने ब्लॉग में कहतें हैं की अब तो ऐसा नहीं होता तो श्रीमान जी जरा अख़बार पढ़ा करो पता चल जायेगा आज भी इस देश में संविधान के इतने प्रावधानों के बावजूद प्रत्येक दिन तीन दलितों को उनकी जाती के कारण मार दिया जाता है प्रत्येक दिन एक दलित महिला से उसकी जाती के कारण बलात्कार होता हे
आरक्षण खतम करने की बात सब करते है लेकिन जातिवाद खतम करने की कोई बात नही करता.
जातिवाद कि कारण आरक्षण आया है आप लोग जातिवाद खतम कर दो आरक्षण अपने आप खतम हो जयेगा!