Monday, June 24, 2013

कर्पूरी जी का अज्ञातवास

सन् 1975 के जून में इस देश में जब आपातकाल लागू हुआ, तब संयोग से कर्पूरी ठाकुर नेपाल के राजबिराज में ही थे. आपातकाल की गंभीरता को समझते हुए उन्होंने नेपाल में ही रह कर भारत में जारी आपातकाल विरोधी भूमिगत आंदोलन के कार्यकर्ताओं के संपर्क में रहने का फैसला किया. भारत सरकार को इस बात की सूचना मिल गयी. नेपाल पुलिस और वहां की खुफिया एजेंसी भी कर्पूरी जी पर निगरानी रख रही थी. नेपाल सरकार ने उनसे कहा कि वे एक जगह से दूसरी जगह जाने से पहले नेपाली अधिकारियों से अनुमति ले लें. कपरूरी ठाकुर की नेपाल में उपस्थिति को लेकर भारत सरकार चिंतित थी.


भारत सरकार ने नेपाल सरकार से कहा कि वह कर्पूरी ठाकुर को उसके हवाले कर दे. नेपाल ने साफ इनकार कर दिया और कहा कि जिस तरह नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बीपी कोइराला भारत में रह रहे हैं, उसी तरह कर्पूरी ठाकुर भी नेपाल में हैं. नेपाल के इस रुख से कर्पूरी जी को तात्कालिक राहत मिल गयी. वे चाहते थे कि नेपाल में ही भूमिगत रह कर भारत में जारी इंदिरा सरकार विरोधी गतिविधियों पर नजर रखें और जरूरत पड़े तो उन्हें संचालित भी करें. देश में दमन जारी था. जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर सहित सभी बड़े नेता गिरफ्तार हो चुके थे. प्रतिपक्षी राजनीतिक गतिविधियों पर पूर्ण प्रतिबंध था. मीडिया पर भी कठोर सेंसरशिप लग गया था. भारत आने का मतलब था, जेल में बंद हो जाना. ऐसे में नेपाल पर भारत का भारी दबाव पड़ा. नेपाल भी भारत से संबंध खराब नहीं करना चाहता था. इसलिए उसने कर्पूरी ठाकुर पर भी पांच सूत्री प्रतिबंध लगा दिया. मीडिया के प्रतिनिधियों से मिलने पर पाबंदी लगा दी गयी.
कर्पूरी जी पर यह भी प्रतिबंध लगा कि वे न तो समाचार पत्रों या पत्रिकाओं के लिए कोई लेख लिखेंगे और न ही कोई बयान जारी करेंगे.
यह पाबंदी भी कि नेपाल से बाहर वे किसी प्रकार का पत्र व्यवहार नहीं करेंगे. विदेशी दूतावासों के काठमांडू स्थित कर्मचारियों से किसी प्रकार का संबंध नहीं रखना होगा. यहां तक कि नेपाल के राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं से भी संबंध रखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. नेपाल यह भी नहीं चाहता था कि ठाकुर तराई में रहें, क्योंकि वहां से भारत में गतिविधियां चलाना आसान था. जुलाई के दूसरे सप्ताह में नेपाल सरकार उन्हें विमान से काठमांडू ले गयी. वहां उन्हें नजरबंद कर दिया गया. नेपाल की सीआइडी के अलावा भारतीय दूतावास की खुफिया पुलिस भी कर्पूरी जी पर निगरानी रखने लगी. वे जहां जाते थे, सब पीछे लग जाते थे. सोने की जगह में भी पासवाले कमरे में खुफिया पुलिस सोती थी. इतना ही नहीं, कर्पूरी ठाकुर ने 1977 में एक पत्रिका से भेंटवार्ता में बताया था कि अपने नेपाल के अज्ञातवास के दौरान मैं जिन लोगों से संपर्क में आया, उन पर नेपाल सरकार ने जुल्म भी ढाये. याद रहे कि आपातकाल के बाद कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने.

कर्पूरी जी ने बताया था कि काठमांडू के मेरे मित्र प्रो एसएन वर्मा की प्रोफेसरी नेपाल ने छुड़ा दी. वर्मा का यही कसूर था कि उन्होंने मुङो काठमांडू स्थित अपने आवास में शरण दी थी. जब मैं नेपाल से भाग निकला तो वर्मा को दस महीने तक जेल में रखा गया. कपरूरी जी के चुनाव क्षेत्र का एक व्यक्ति काठमांडू में रह कर छोटा मोटा काम करता था. पुलिस ने उसे इतना तंग किया कि उसने नेपाल छोड़ दिया. छपरा के एक व्यक्ति का काठमांडू में एक सैलून था, जहां कर्पूरी जी दाढ़ी बनवाते थे, उसे पुलिस ने इतना पीटा कि वह अधमरा हो गया. कर्पूरी जी के अनुसार नेपाल पुलिस इन लोगों पर इसलिए नाराज थी कि कैसे मैं नेपाल से निकल भागा और इन लोगों ने पुलिस को क्यों इसकी पूर्व सूचना नहीं दी.

याद रहे कि नेपाल की खुफिया पुलिस को चकमा देकर 6 सितंबर, 1975 को लिवास और अपना नाम बदल कर कर्पूरी ठाकुर थाई एयरवेज के जहाज से काठमांडू से कलकत्ता पहुंच गये. वहां बिहार के चर्चित कांग्रेसी नेता राजो सिंह और रघुनाथ झा मिले. उन्होंने कर्पूरी जी को पहचान लिया. राजो सिंह ने कागज के बहाने कर्पूरी जी की जेब में कुछ रुपये भी रख दिये. कांग्रेसी होते हुए भी इन लोगों ने कर्पूरी जी के बारे में पुलिस को सूचना नहीं दी, जबकि पुलिस उन्हें बेचैनी से तलाश रही थी. संभवत: ऐसा कर्पूरी जी के शालीन स्वभाव और ईमानदार छवि के कारण हुआ

Wednesday, June 19, 2013

प्रेरणास्रोत हैं बीएन मंडल




आजादी की लड़ाई में वे कई बार जेल गये और यातनाएं झोली. जमींदार परिवार से आने पर भी वे हमेशा गरीबों और शोषितों के बीच रह कर उन्हीं के हिमायती बने रहे. वे जीप और कार की सवारी छोड़ गांवों में बैलगाड़ी की सवारी करते थे. ऐसे वक्त में, जब पद और सत्ता पाने के लिए तमाम तरह के जोड़तोड़ की खबरें आ रही हों, यह जानना दिलचस्प होगा कि उन्होंने बिहार की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार में अहम पद लेने से इनकार कर दिया था. हम बात कर रहे हैं आजादी की लड़ाई के साथ-साथ देश में समाजवाद की स्थापना में अहम योगदान देनेवाले प्रखर नेता भूपेंद्र नारायण मंडल की, 

बीएन मंडल का जन्म मधेपुरा जिले के रानीपट्टी गांव में संपन्न जमींदार परिवार में 1 फरवरी, 1904 को हुआ. उन्होंने भागलपुर से स्नातक व पटना विवि से कानून की डिग्री प्राप्त ली. विद्यार्थी जीवन में ही वे गांधीजी के असहयोग आंदोलन से जुड़ गये थे. वकालत पेशे में आने पर 1942 में हजारों लोगों के साथ मधेपुरा कचहरी पर यूनियन जैक उतार कर हिंदुस्तान का झंडा फहरा दिया. उन्होंने उसी दिन वकालत छोड़ दी.

1937 में कई प्रांतों में आंतरिक सरकार की स्थापना हुई. कांग्रेस प्रगतिशील गुट के बड़े नेताओं ने सोशलिस्ट ग्रुप की स्थापना की, जिसके नेता जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, आचार्य नरेंद्रदेव, डॉ लोहिया आदि थे. भूपेंद्र बाबू इन्हीं नेताओं के साथ सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो समाजवादी सिद्धांतों के लिए संघर्षरत रहे. 1948 में सोशलिस्ट पार्टी कांग्रेस से अलग हो गयी. 1952 में उसने आम चुनाव लड़ा. कांग्रेस सत्ता में आ गयी. जेपी 1954 में राजनीति से संन्यास लेकर भूदान आंदोलन में चले गये और आगे चल कर सोशलिस्ट पार्टी भी दो भागों, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी, में बंट गयी. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को चुनाव चिह्न् झोपड़ी मिला और सोशलिस्ट पार्टी को बरगद का पेड़, जो सोशलिस्टों का 1952 में भी चुनाव चिह्न् था. समाजवादियों के एक ग्रुप यानी सोशलिस्ट पार्टी का नेतृत्व डॉ लोहिया कर रहे थे, जिसमें मधु लिमये, मामा बालेश्वर दयाल, बद्रीविशाल पित्ती, पीवी राजू, जार्ज फर्नाडीस, इंदुमति केलकर, राजनारायण, रामसेवक यादव एवं बीएन मंडल सरीखे नेता थे.

बीएन मंडल बिहार सोशलिस्ट पार्टी के आधार स्तंभ बने. इस पार्टी के नेताओं में अक्षयवट राय, सीताराम सिंह, बाबूलाल शास्त्री, तुलसी दास मेहता, पूरनचंद, उपेन्द्र नारायण वर्मा, भोला सिंह, श्रीकृष्ण सिंह, अवधेश मिश्र, जगदेव प्रसाद, रामइकबाल वरसी, सच्चिदानंद सिंह, जितेन्द्र यादव आदि थे. 1957 के चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी (पेड़ छाप) से बीएन मंडल एकमात्र विधायक चुने गये थे. पर, डॉ लोहिया की नीति, सिद्धांत सिद्धांत, स्पष्टवादिता और खुले एजेंडे को जनता ने खूब पसंद किया. बीएन मंडल ने अपनी प्रतिभा एवं सिद्धांतों के बल पर बिहार विधानसभा में अकेले रह कर भी समाजवादी विचारों को प्रचारित-प्रसारित करते हुए भाषण और विरोध के बल पर गरीबों और शोषितों के सवाल को बड़े पैमाने पर उठाया. 1962 में सोशलिस्ट पार्टी के सात विधायक चुने गये और 1967 में पेड़ छाप वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के 70 विधायक चुने गये. संसोपा बिहार में पहली गैर कांग्रेसी सरकार के प्रमुख घटक दल के रूप में उभरी. बीएन मंडल को बिहार की पहली गैर कांग्रेसी सरकार में प्रमुख पद दिया जा रहा था, लेकिन उन्होंने उस पद को लेने से इनकार कर दिया. उनकी राय थी कि जो व्यक्ति संसद सदस्य हो, विधानसभा सदस्य नहीं हो, उसे नैतिकता व सिद्धांत के आधार पर विधानसभा का कोई पद धारण नहीं करना चाहिए. डॉ लोहिया भी प्रारंभ से ही विधायिका के एक पद को छोड़ कर लालच या लोभ में दूसरे बड़े पद पर जाने को बेईमानी समझते थे. लोहिया जी के विचारों से बीएन मंडल सहमत थे. इसलिए संसद सदस्य होने के कारण वे मुख्यमंत्री या मंत्री पद लेने को तैयार नहीं हुए. उसी सरकार में महामाया बाबू मुख्यमंत्री और संसोपा की ओर से कपरूरी ठाकुर उप मुख्यमंत्री बने थे.
सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में भूपेन्द्र बाबू ने 1962 में कांग्रेस नेता ललित नारायण मिश्र को लोकसभा चुनाव में हराया था. वे 1966 और 1972 में राज्यसभा के लिए चुने गये. अपने संसदीय जीवन में उन्होंने राज्य और राष्ट्रहित में हमेशा गंभीरतापूर्वक अपनी राय दी. विदेशनीति और अंतरराष्ट्रीय घटनाओं पर भी उनकी पैनी दृष्टि रहती थी.

Sunday, June 9, 2013

सरकारी शिक्षा से बेरुखी

सरकारी शिक्षा से बेरुखी


अगर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की एक महत्वपूर्ण कड़ी शिक्षक है, तो अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देने के इस युग में सरकार की तरफ से हरचंद ऐसी कोशिश हुई है कि शिक्षक, पढ़ानेवाला कम और न्यूनतम मजदूरी को तरसता मजदूर ज्यादा नजर आये. वह कहीं ‘शिक्षा-मित्र’ (बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश) कहलाता है, तो कहीं ‘पारा शिक्षक’ (झारखंड), तो कहीं ‘विद्या-वालंटियर’ (आंध्रप्रदेश)   या विद्द्या सहायक ( गुजरात में ) . अगर उसे कुछ नहीं कहा जाता तो शिक्षक.
ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं, जब किसी ने सत्ता के शीर्ष पद पर पहुंचने के बावजूद अपनी स्वाभाविक साधुता बरकरार रखी हो. गरीबी में पले, सरकारी स्कूलों में पढ़े, बच्चों के बीच बेहद लोकिप्रय और उनके भीतर भविष्य का भारत देखनेवाले पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम ऐसे ही शख्सीयतों में शुमार किये जाते हैं. कलाम साहब पद पर रहते हुए सत्ता के गलियारे में इस या उस पार्टी के हित में चाल चलने के लिए नहीं, बल्कि भारत की हित-चिंता करनेवाले व्यक्ति के रूप में जाने गये और रिटायरमेंट के बाद वे एक बार फिर से ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ की उसी शैली में दिन बिता रहे हैं, जिसकी उम्मीद आजादी के बाद के दिनों में इस देश के शीर्षस्थ नेताओं ने देश के नागरिकों से की थी.


साधुता हानि-लाभ की चिंता किये बगैर आदमी से सच बुलवा लेती है, बेलाग-लपेट वाला सच. बीते मार्च महीने में कलाम साहब के साथ ऐसा ही वाक्या हुआ. मार्च महीने के दूसरे पखवाड़े की शुरु आत में वे कोलकाता में थे. यहां नेशनल हाइस्कूल की शतवार्षिकी पर आयोजित समारोह में उन्होंने वह बात कही, जो शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने के बाद देश का मानव संसाधन विकास मंत्रलय शायद ही कभी कहे या माने. कलाम साहब ने कहा कि शिक्षा कारोबार की वस्तु नहीं है. शिक्षा छात्र, अभिभावक, शिक्षक को एकतार में जोड़नेवाली होनी चाहिए और इसके लिए स्कूल का सिलेबस का अच्छा होना तो जरूरी है ही, उससे भी जरूरी है सिलेबस पढ़ानेवाले का चरित्र से महान होना.


उनके शब्द थे- ‘‘बड़ी इमारत, भरपूर सुविधाओं और बड़े विज्ञापनों से पढ़ाई में गुणवत्ता नहीं आती, पढ़ाई में गुणवत्ता आती है शिक्षक के महान होने से, शिक्षा के भीतर छात्रों के प्रति प्यार के होने से. ’’कलाम साहब कोई नयी बात नहीं कह रहे थे, वह तो सदियों से चली आ रही एक जरूरी मान्यता को फिर से रेखांकित कर रहे थे. एक ऐसी मान्यता जिसे आधिकारिक तौर पर बड़ी तेजी से भुलाया जा रहा है. शिक्षा के मामले में क्या हम बीतते दिनों के साथ यह नहीं मानने लगे हैं कि दुकान ऊंची होगी, तो पकवान भी मीठे होंगे? क्या इसी मान्यता के तहत ऐसे निजी स्कूलों की तादाद नहीं बढ़ी, जो अपने विज्ञापनों में पंचसितारा सुविधाएं देने का वादा करते हैं और निम्न-मध्यम वर्ग का अभिभावक सोचता है कि महंगी फीस चुकाने की बाध्यता के कारण चाहे पेट काटना पड़े, लेकिन बच्चे को ऊंची इमारतों और भरपूर सुविधाओंवाले निजी स्कूल में पढ़ाना जरूरी है?
इसी हफ्ते की खबर है कि सरकार देश में नयी शिक्षा नीति लाना चाहती है और मानव संसाधन विकास मंत्री एमएम पल्लम राजू इस दिशा में पूर्व मंत्री कपिल सिब्बल के नक्शे-कदम पर चलते हुए एक नया शिक्षा आयोग बनाना चाहते हैं. आयोग की रूपरेखा तय करने के लिए बैठकें हो रही हैं, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि उसका गठन भी होगा, सिफारिशें आयेंगी और शायद देश में एक और नयी शिक्षा नीति लागू हो जाये. शिक्षा आयोग इस देश में पहले भी बने हैं, उनकी सिफारिशों पर देश के लिए शिक्षा नीतियां पहले भी बनायी गयी हैं, आजादी से पहले और उसके बाद भी. आजादी से पहले इस दिशा में जो प्रयास हुए, उनमें एक प्रयास आजादी के संघर्ष के भरपूर सालों में हुआ था.


सन् 1934 में संयुक्त प्रांत की सरकार ने सप्रू समिति का गठन किया था. चूंकि इस समिति का गठन संयुक्त प्रांत में बढ़ती बेरोजगारी के कारणों का पता लगाने के लिए किया गया था, इसलिए उसकी सिफारिशों के केंद्र में बेरोजगारी का समाधान ही था. उसने सुझाया कि शिक्षा की चालू व्यवस्था तो छात्रों को सिर्फ परीक्षा पास करने और डिग्री हासिल करने के लिए तैयार करती है. समिति का समाधान था कि लोगों को रोजगारपरक शिक्षा दी जानी चाहिए. याद रहे कि भारतीय स्वाधीनता का जो संग्राम उन दिनों सांस्कृतिक मोरचे पर लड़ा जा रहा था, उसका विचार इसके उलट था. ‘शिक्षे! तेरा नाश हो जो नौकरी के हित ही बनी’- तब सांस्कृतिक मोरचे से यह आवाज उठ रही थी.