Sunday, November 25, 2012

राज्य मद्द निषेध दिवस मनाया गया


माद्द निषेध दिवस के अवसर पर नेहरु युवा केंद्र के तत्वावधान में अम्बेडकर क्लब मधुकरचक के द्वारा नुक्कड़ नाटक एवं प्रभात फेरी का कार्यक्रम क्लब के अध्यक्ष कुमार दीनबन्धु  के नेतृत्व में किया गया . कार्यक्रम द्वारा ग्रामीण नवयुवकों में बढ़ती नशाखोरी एवं इसके  कुप्रभावों पर   चिंता व्यक्त किया गया , साथ ही नशाखोरी से बचने के उपायों को नाटक मंचन के द्वारा दिखया गया .कार्यक्रम में सचिव दिलीप कुमार , सदस्यों रमण ,संजीव ,मनीष ,दीपक ,मिथिलेश , गौरव , बैद्द्नाथ ,निर्भय आदि उपस्थित  जबकि उपस्थित ग्रामीणों में पूर्व मुखिया  नागेश्वर यादव , भादो शर्मा , कैलाश मंडल , शिवन रजक , सुधीर यादव आदि के  द्वारा क्लब के समाज सुधार कार्यक्रम को सराहनीय बताया गया .
                 
                                                            विदित हो की अम्बेडकर क्लब मधुकरचक एक स्वयंसेवी सामाजिक संस्था के रूप में पिछले 14 वर्षों से वृहत उद्देश्य लिए  कार्य कर रही है  . इसके कार्यक्षेत्रों में निरक्षरता उन्मूलन , पर्यावरण संरक्षण , स्वास्थ्य एवं पोषण , स्वरोजगार प्रोत्साहन , लैंगिक समानता , रूढ़िवादी एवं अन्धविश्वासी परम्पराओं का उन्मूलन , दलित उत्थान , गंभीर रोग निरोधक उपाय जैसे कई समाज सुधार के क्षेत्रों को शामिल किया गया है . लेकिन सरकारी सहायता नहीं मिलने के कारण भारत सरकार के  खेल एवं युवा मंत्रालय के नेहरु युवा केंद्र से पंजीकृत यह क्लब अपने उद्देश्यों को पाने में संघर्ष कर रहा है .  सीमित संसाधनों के बावजूद यह क्लब अपनी स्वयं की रफ़्तार से कार्य कर रहा है .

Monday, November 19, 2012

छठ पर्व की आस्था एवं ऐतिहासिकता

छठ लोकपर्व है. इसके साथ लोगों की गहरी आस्था जुड़ी है. इसमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है, सभी के लिए यह एक जैसा है. छठ किसी जाति या समुदाय से बंधा हुआ नहीं है. यही एक ऐसा पर्व है, जिसमें किसी पुरोहित की जरूरत नहीं पड़ती. प्रकृति की पूजा के इस पर्व की खासियत तो देखिये, लोग उगते सूर्य की बजाय डूबते यानी अस्ताचलगामी सूर्य को पहले अर्घ देते हैं. छठ के दौरान सूर्य और छठी मइया (पार्वती), दोनों की पूजा होती है.


उदारीकरण के दौर में लगभग सभी पर्व-त्योहारों को बाजार ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है. होली, दशहरा, दीपावली- सभी पर बाजार ने किसी न किसी रूप में प्रभाव डाला है. फिर चाहे वह रंग-बिरंगी पिचकारी हो या सजावटी दीये व बल्ब, बाजार का डंका हर जगह बज रहा है. लेकिन, छठ पर्व के आगे बाजार की अब तक नहीं चल पायी है. प्रकृति के इस पर्व में आज भी सब कुछ प्राकृतिक ही है. इतना ही नहीं, लगभग सभी पर्व-त्योहारों पर अपसंस्कृति भी हावी होती दिखायी देती है, लेकिन छठ इससे भी बचा हुआ है. सबसे मजेदार बात यह है कि दशहरा में जो युवक चंदा लेने के लिए हुड़दंग मचाते हैं, जोर-जबरदस्ती करते हैं, छठ आते ही व्यवस्थापक बन जाते हैं, कुछ लेने के बदले, देने के लिए तैयार हो जाते हैं. उनके मन में डर होता है कि छठ पूजन के दौरान अगर कुछ गलत करेंगे तो उसका गंभीर दंड मिलेगा और यदि अच्छा काम करेंगे तो काफी कुछ अच्छा होगा.
छठ की धार्मिक महत्ता बहुत अधिक है. पुराणों में भी छठ का वर्णन मिलता है. खास कर स्कंद और भविष्य पुराण में. इतिहास और अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी इसकी चर्चा है. 1111 ई से 1155 ई तक गहड़वाल वंश के राजा थे गोविंद चंद्र. वे बहुत शक्तिशाली थे. आधा उत्तर प्रदेश यानी कन्नौज से लेकर पूरे बिहार तक उनका शासन था. उनके मंत्री थे लक्ष्मीधर. उन्होंने एक पुस्तक लिखी है ‘कृत्य कल्प तरू’. इसके अध्याय ‘व्रत विवेचन कांड’ में छठ का वर्णन है. कहा गया है कि कार्तिक शुक्ल षष्ठी को स्कंद माता (पार्वती) के पुत्र स्कंद यानी कार्तिकेय का जन्म हुआ और लोग उनके जन्मोत्सव को छठ के रूप में मनाने लगे. इस पर्व के दौरान महिलाएं जो गीत गाती हैं, उससे भी लगता है कि यह पुत्र प्राप्ति के लिए किया जानेवाला विशेष पर्व है. वैसे भी यह किताब (कृत्य कल्प तरू) करीब नौ सौ साल पहले लिखी गयी थी और कोई भी पर्व अचानक किसी किताब का हिस्सा नहीं बन सकता. कम-से-कम पांच सौ साल तो लग ही जाते हैं. इस हिसाब से छठ का इतिहास करीब डेढ़ हजार साल पुराना माना जा सकता है. मिथिला के पंडितों ने भी छठ पूजा का वर्णन अपनी रचनाओं में किया है. 14वीं सदी के आरंभ में राजा हरि सिंह के मंत्री थे पंडित चंदेश्वर. उन्होंने अपनी पुस्तक ‘कृत्य रत्नाकर’ में स्कंद जन्मोत्सव की चर्चा की है. इसी तरह पंडित रूद्रधर ने अपनी रचना ‘कृत्य वर्ष’ में सूर्य पूजा का वर्णन किया है.


वैसे वैदिक काल में भी छठ पूजा की बात आयी है. पंच देवता के रूप में पहली गणना सूर्य की ही होती है. ये हैं- सूर्य, विष्णु, शिव, पार्वती और गणोश. गायत्री मंत्र ‘ऊं भूर्भव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य: धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्’ वास्तव में सूर्य की ही स्तुति है और इस मंत्र के रचयिता है विश्वामित्र. इस तरह सूर्य की पूजा वैदिक काल से होती आ रही है. हां, यह सच है कि हर भगवान की पूजा समय खंड में बदलती रही है, जैसे आजकल हनुमान जी की पूजा करनेवाले बढ़ गये हैं, लेकिन सूर्य के प्रति श्रद्धा कभी कम नहीं हुई. छठ इसका सबसे अच्छा प्रमाण है.


बिहार में तो छठ को राज्य पर्व का दर्जा प्राप्त है. बिहारियों का यह सबसे बड़ा पर्व है. शायद ही कोई बिहारी छठ पूजा में शरीक नहीं होता होगा. अब तो छठ लोकल से ग्लोबल होता जा रहा है. जहां-जहां भी बिहारी रह रहे हैं, वहां-वहां छठ हो रहा है. फिर चाहे वे महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब जैसे राज्य हों या फिजी, मॉरीशस जैसे देश, हर जगह छठ पर्व का आयोजन काफी धूमधाम से होने लगा है. अब तो बिहार सरकार की तरह दूसरी कई राज्य सरकारें भी छठ पर छुट्टी की घोषणा करने लगी हैं. बिहार से बाहर भी देश के कई प्रमुख शहरों में वहां की सरकार और राजनीतिक दल छठ को लेकर नदियों के किनारे विशेष व्यवस्थाएं करने लगे हैं. हालांकि इसके पीछे बिहारियों की बड़ी जमात को गोलबंद कर राजनीतिक लाभ लेने की भावना हो सकती है. लेकिन इस बहाने बिहारी अस्मिता को अब सम्मान भी मिलने लगा है. दूसरे राज्यों में छुट्टी की घोषणा होना बताता है कि उनके लिए बिहारी अब महत्वपूर्ण हैं, उनकी और उपेक्षा नहीं की जा सकती.

 यदि अपने क्षेत्र बिहारीगंज की बात की जाय तो छठ  में यहाँ की छटा देखते ही बनती है . शिवालय स्थित तालाब में स्थानीय विधायिका रेणु कुमारी के कोष से  44 लाख रुपये की राशि से निर्मित घाट की सुन्दरता देखते ही बनती है .