डाक्टर भीमराव
अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महाराष्ट्र के एक महार परिवार में हुआ
था। 1907 में मैट्रिकुलेशन पास करने के बाद बड़ौदा महाराज की आर्थिक
सहायता से वे एलिफिन्सटन कॉलेज से 1912 में ग्रेजुएट हुए। कुछ साल बड़ौदा
राज्य की सेवा करने के बाद उनको गायकवाड़-स्कालरशिप प्रदान किया गया जिसके
सहारे उन्होंने अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में
एम.ए. (1915) किया। इसी क्रम में वे प्रसिध्द अमेरिकी अर्थशास्त्री
सेलिगमैन के प्रभाव में आए। सेलिगमैन के मार्गदर्शन में उन्होंने कोलंबिया
विश्वविद्यालय से 1917 में पीएच. डी. की उपाधी प्राप्त कर ली। उनके शोध का
विषय था - नेशनल डेवलेपमेंट फॉर इंडिया : ए हिस्टोरिकल एंड एनालिटिकल
स्टडी। इसी वर्ष उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में दाखिला लिया लेकिन
साधनाभाव में अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाए। कुछ दिनों तक वे बड़ौदा
राज्य के मिलिटरी सेक्रेटरी थे। फिर वे बड़ौदा से बम्बई आ गए। कुछ दिनों
तक वे सिडेनहैम कॉलेज, बम्बई में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर भी
रहे। डिप्रेस्ड क्लासेज कांफरेंस से भी जुड़े और सक्रिय राजनीति में
भागीदारी शुरू की। कुछ समय बाद उन्होंने लंदन जाकर लंदन स्कूल ऑफ
इकोनोमिक्स से अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी की। इस तरह विपरीत परिस्थिति में पैदा
होने के बावजूद अपनी लगन और कर्मठता से उन्होंने एम.ए., पी एच. डी., एम.
एस. सी., बार-एट-लॉ की डिग्रियां प्राप्त की। इस तरह से वे अपने युग के
सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे राजनेता एवं विचारक थे। उनको आधुनिक पश्चिमी
समाजों की संरचना की समाज-विज्ञान, अर्थशास्त्र एवं कानूनी दृष्टि से
व्यवस्थित ज्ञान था। वे विदेशों के परिवेश तथा मान्यताओं को पूर्ण रूप से
समझते थे, किन्तु उन्होंने अपने कार्यों एवं रचनाओं के द्वारा जिस
विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया उसकी संरचना में सबसे अधिक भाग भारत की
तत्कालीन परिस्थिति में उनके अपने अनुभवों, विवेक एवं दूरदर्शिता की थी।
महात्मा गांधी और देंग शियाओ पिंग की तरह डा. अम्बेडकर भी एक रणनीतिक
विचारक थे और समय-समय पर आवश्यकता के अनुसार अपने लक्ष्य की प्राप्ति के
लिए अपने विचारों एवं सरोकारों को पिछले अनुभवों के आधार पर संशोधित एवं
परिमार्जित भी किया। लेकिन शुरू से अंत तक उनका लक्ष्य एवं उनके चिंतन की
मूल धारा में निरंतरता बनी रही। 1920 के दशक में बंबई में एक बार बोलते
हुए उन्होंने साफ-साफ कहा था ''जहाँ मेरे व्यक्तिगत हित और देशहित में
टकराव होगा वहाँ मैं देश के हित को प्राथमिकता दूँगा, लेकिन जहाँ दलित
जातियों के हित और देश के हित में टकराव होगा, वहाँ मैं दलित जातियों को
प्राथमिकता दूँगा।'' वे अंतिम समय तक दलित-वर्ग के मसीहा थे और उन्होंने
जीवनपर्यंत अछूतोद्वार के लिए कार्य किया। जब गांधी ने दलितों को
अल्पसंख्यकों की तरह पृथक निर्वाचन मंडल देने के ब्रिटिश नीति के खिलाफ
आमरण अनशन किया तो शुरू में डा. अम्बेडकर ने कहा ''महात्मा कोई अमर
व्यक्ति नहीं है, और न कांग्रेस ही अमर है। बहुत से महात्मा आये और चले
गये। लेकिन अछूत अछूत ही बने रहे।'' लेकिन जब आमरण अनशन के कारण सचमुच
महात्मा गांधी के जीवन पर खतरा मंडराने लगा तो देश के हित के लिए डा.
अम्बेडकर ने महात्मा गांधी के साथ पूना-पैक्ट (1932) किया। और स्वतंत्रता
मिलने के बाद संविधान सभा के प्रारूप समिति के अध्यक्ष एवं भारत के प्रथम
कानून मंत्री के रूप में डा. अम्बेडकर का चुनाव महात्मा गांधी की प्रेरणा
से ही हुआ था। भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए
आरक्षण के बारे में सैद्वांतिक सहमति गांधी-अम्बेडकर के पूना पैक्ट के
दौरान ही हो गई थी। महात्मा गांधी पाकिस्तान की तरह दलितिस्तान की संभावना
के कारण पृथक निर्वाचन मंडल के खिलाफ थे लेकिन अछूतोध्दार की हर उस कोशिश
के पक्ष में थे जो अहिंसा एवं सत्य के साथ सर्वोदय के उनके आदर्श के खिलाफ
न हो। दलितों और जनजातियों को मुख्यधारा में लाने के लिए कानूनी संरक्षण
या आरक्षण के बारे में गांधीजी और डा. अम्बेडकर के विचारों में 1932 के
बाद सैद्वांतिक विरोध की जगह पूरकता ज्यादा दिखती है।
महात्मा
गांधी अछूतोध्दार के लिए सवर्ण हिन्दुओं के हृदयपरिवर्तन के लिए वैष्णव
धर्म और भक्ति आंदोलन की सभ्यतामूलक चेतना में जैन दर्शन के अनेकांतवाद से
भी प्रभावित थे। उनका मानना था कि अछूतों की कुछ समस्यायें तो सवर्ण
हिन्दुओं की अशिक्षा के कारण पैदा हुई है लेकिन उनकी कुछ समस्यायें हर
समुदाय के किसानों, श्रमिकों एवं शिल्पकारों की समस्या है जो उपनिवेशवादी
गुलामी के कारण पैदा हुई है। इसके निवारण के लिए महात्मा गांधी ने
बुनियादी शिक्षा, ग्राम स्वराज, सर्वोदय और आत्म-परिष्कार की वकालत किया।
महात्मा गांधी समाज की समस्या को समाज के लोगों (जिसे वे लोक कहते थे) के
स्तर पर आपसी सद्भाव से हल करने के पक्ष में थे। वे राज्य की बहुत सीमित
भूमिका देखते थे। आधुनिक विधि व्यवस्था, संसद, पुलिस-स्टेशन आदि पर उनको
ज्यादा भरोसा नहीं था। दुर्खीम के गिल्ड-समाजवाद को ही वे सर्वोदय के नाम
से भारतीय समस्याओं के समाधान के लिए प्रस्तुत कर रहे थे। गांधीजी के प्रति
अपार आदर के बावजूद कांग्रेस की सरकार गांधीजी की विचारधारा पर नहीं चल
पायी। जवाहरलाल नेहरू आधुनिक पश्चिम की औद्योगिक व्यवस्था के तहत
मार्क्सवाद से प्रभावित प्रजातांत्रिक समाजवाद के समर्थक थे।
महात्मा
गांधी और जवाहरलाल नेहरू के विपरीत डा. अम्बेडकर समाजवादी नहीं थे। उनकी
शिक्षा अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स
में हुई थी। वे मार्क्सवादी समाजवाद के स्थान पर पश्चिमी यूरोप और अमेरिका
में प्रचलित प्रजातांत्रिक पूँजीवादी व्यवस्था के तहत ही बौद्व धर्म
'बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय' वाले आदर्श समाज के निर्माण के पक्षधर थे
जिसमें हर व्यक्ति एक दूसरे के समान होगा। फ्रांसीसी क्रांति के नारे
स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व की भावना को वे भगवान बुध्द, महात्मा कबीर
और महात्मा ज्योतिबा के चिंतन का भी केन्द्रीय सरोकार मानते हैं। वे अक्सर
कहा करते थे कि यह सुखद संयोग है कि फ्रांसीसी क्रांति के नेताओं को भी
भारतीय मनीषियों की तरह सभ्य समाज के लिए स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व
की विचारधारा उतनी ही आवश्यक लगती थी।
आधुनिक
विधि व्यवस्था, संसद और आधुनिक शिक्षा में उनकी गहरी आस्था थी। वे
अधिकांशत: पश्चिमी अभिजन की शैली में कोट-पैंट और टाई लगाते थे। उनकी
स्पष्ट मान्यता थी कि दलितों को न सिर्फ ऊँची शिक्षा हासिल करनी चाहिए
बल्कि सत्ता संचालन में प्रत्यक्ष भागीदारी करनी चाहिए। बिना
राजनैतिक-आर्थिक शक्ति और ज्ञान प्राप्त किये दलितों और अछूतों के लिए
उन्नति के सारे मार्ग बंद हैं। अत: उन्होंने अपने अनुयायियों को आपस में
राजनैतिक रूप से संगठित होकर सत्ता में प्रत्यक्ष भागीदारी के लिए प्रेरित
किया। 1920 से 1956 तक पूरे जीवन वे दलितों को राजनैतिक रूप से संगठित
होकर सत्ता में प्रत्यक्ष भागीदारी के लिए विभिन्न मंचों पर सक्रिय रहे।
लेकिन अपने जीवन में राजनैतिक स्तर पर अपने दल रिपब्लिकन पार्टी को उतनी
सफलता नहीं दिला पाये। लेकिन कालांतर में उनके विचारों से प्रेरित दलित
आंदोलन से कांसीराम और मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी का विकास
हुआ जिसने 1980 के दशक से उत्तर प्रदेश की राजनीति में पहले दलित वोटों को
गोलबंद करने में सफलता पायी फिर गठबंधन की राजनीति के दौर में 1993 से
सत्ता में प्रत्यक्ष भागीदारी पाना शुरू किया। 1995 से अब तक मायावती उत्तर
प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं और उत्तर भारत के अन्य
राज्यों में भी बहुजन समाज पार्टी का विस्तार हो रहा है। अब दलितों को
अछूत कहना तो दूर उनके नेतृत्व में राजनीतिक गठबंधन बनाने की होड़ सवर्ण
जातियों में आम बात हो गई है।
शिक्षण
केन्द्रों, नौकरियों, विधान सभा और लोक सभा में अनुसूचित जातियों और
जनजातियों के लिए 1952 से आरक्षण लागू करवा लेना डा. अम्बेडकर के लिए बड़ी
उपलब्धी मानी जाती है। दलित, आदिवासियों और स्त्रियों के अधिकारों के
रक्षा के लिए भी डा. अम्बेडकर ने कई कानून बनवाया। उनकी प्रेरणा से
अनुसूचित जाति आयोग भी बना।
महात्मा
गांधी के विपरीत डा. अम्बेडकर गांवों की अपेक्षा नगरों में एवं ग्रामीण
शिल्पों या कृषि की व्यवस्था की तुलना में पश्चिमी समाज की औद्योगिक विकास
में भारत और दलितों का भविष्य देखते थे। वे मार्क्सवादी समाजवाद की तुलना
में बौध्द मानववाद के समर्थक थे जिसके केन्द्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता,
समानता एवं भ्रातृत्व की भावना है।