Wednesday, December 26, 2012

अस्मिता की लड़ाई

दिल्ली गैंगरेप के विरोध में लोगों का गुस्सा चौतरफा देखा जा रहा है. लोग बात कर रहे हैं कि लड़कियों-स्त्रियों की सुरक्षा के मुद्दे का स्थायी समाधान किस तरह निकले. 1970 के दशक के उत्तरार्ध में मथुरा बलात्कार कांड के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का जो फैसला आया था, उसके बाद जिस तरह देशव्यापी प्रदर्शन हुए थे और सरकार को बलात्कार संबंधी कानून में बदलाव करना पड़ा था, उसी किस्म का वातावरण इस वक्त बन गया है.

बलात्कार की घटना के बाद अकसर पीड़िता को ही दोषी ठहराने की हमारे समाज में एक रीति है, जिसमें उसे ही आधुनिक कपड़े पहनने से लेकर अकेले सड़क पर चलने को लेकर उलाहना दी जाती है. लेकिन इसके विपरीत इस बार एक सकारात्मक बात दिख रही है, लोग खुद कह रहे हैं कि सुरक्षा के लिए हम अपनी लड़कियों को घर में कैद नहीं कर सकते, न ही हर सार्वजनिक स्थल पर या लड़की जहां जाये वहां परिवारवालों की निगरानी में रख सकते हैं. आखिर लड़की होने का खामियाजा वे कबतक भुगतती रहेंगी, इसलिए सुरक्षित समाज तो उन्हें चाहिए ही.

सवाल पहले सरकार से है कि आखिर घटना घट जाने के बाद सख्ती की याद क्यों आती है? अब तक कानूनों को सख्त बना कर उस पर अमल क्यों नहीं हुआ? फास्ट ट्रैक कोर्ट को नीतिगत स्तर पर स्वीकृति मिलने के बाद भी वह क्यों नहीं बन सका? इस घटना से उपजे जनाक्रोश के दबाव में अब दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिख कर अनुरोध किया है कि वे दिल्ली में फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की प्रक्रिया को तेज करें. गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भी संसद के पटल पर कहा कि वह सुनिश्चित करेंगे कि उपरोक्त मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में हो.

सरकार अगर इच्छाशक्ति दिखाये तो जल्द सुनवाई और अपराधियों को कड़ी सजा संभव है. इसका उदाहरण राजस्थान में मिला है, जहां एक विदेशी पर्यटक के साथ हुए यौन अत्याचार के मामले में घटना के महज 15 दिन के अंदर सारी सुनवाई पूरी कर ली गयी थी और आरोपियों को सजा सुनायी गयी थी. ऐसी त्वरित कार्रवाई अन्य सभी मामलों में क्यों संभव नहीं है, ताकि बलात्कार पीड़िता का न्याय व्यवस्था पर भरोसा बन सके और वह मामले को भूल कर जिंदगी में एक नया पन्ना पलट सके. आम तौर पर यही देखने में आता है कि कभी न्यायालयों में लंबित मामलों की अधिक संख्या के नाम पर, तो कभी मामले की जांच में पुलिस द्वारा बरती जानेवाली लापरवाही एवं विलंब के नाम पर फैसला आने में सालों