Monday, October 5, 2015

भारत में गौ हत्या : कब और कैसे पाप बना ?

******इतिहासकार डी. एन. झा के शोध पर आधारित ********

लोगों ने ये ग़लत धारणा बना रखी है कि भारत में सिर्फ मुसलमान ही हैं जो गोमांस खाते हैं. यह बिल्कुल ही निराधार सोच है क्योंकि इसका कोई भी ऐतिहासिक आधार नहीं है.
वैदिक साहित्य में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि उस दौर में भी गोमांस का सेवन किया जाता था. जब यज्ञ होता था तब भी गोवंश की बली दी जाती थी.
उस वक़्त यह भी रिवाज था कि अगर मेहमान आ जाए या कोई ख़ास व्यक्ति आ जाए तो उसके स्वागत में गाय की बली दी जाती थी.

पढ़ें विस्तार से


गाय, भारत

शादी के अनुष्ठान में या फिर गृह प्रवेश के समय भी गोमांस खाने-खिलाने का चलन आम हुआ करता था. ये गुप्तकाल से पहले की बात है.
गोहत्या पर कभी प्रतिबंध नहीं रहा है लेकिन पांचवीं सदी से छठी शताब्दी के आस-पास छोटे-छोटे राज्य बनने लगे और भूमि दान देने का चलन शुरू हुआ.
इसी वजह से खेती के लिए जानवरों का महत्व बढ़ता गया. ख़ासकर गाय का महत्व भी बढ़ा. उसके बाद धर्मशास्त्रों में ज़िक्र आने लगा कि गाय को नहीं मारना चाहिए.

सज़ा का प्रावधान


गाय, भारत

धीरे-धीरे गाय को न मारना एक विचारधारा बन गई, ब्राह्मणों की विचारधारा. साथ ही एक दूसरी चीज़ भी होती रही.
पांचवीं-छठी शताब्दी तक दलितों की संख्या भी काफ़ी बढ़ गई थी. उस वक़्त ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्रों में यह भी लिखना शुरू किया कि जो गोमांस खाएगा वो दलित है.
उसी दौरान सज़ा का भी प्रावधान किया गया, यानी जिसने गोहत्या की उसे प्रायश्चित करना पड़ेगा.
फिर भी ऐसा क़ायदा नहीं था कि गोहत्या करने वाले की जान ली जाए, जैसा आज कुछ लोग कह कर रहे हैं. लेकिन गोहत्या को ब्रह्म हत्या की श्रेणी में रखा गया.
इसके बावजूद भी इसके लिए किसी कड़ी सज़ा का प्रावधान नहीं किया गया.

अपराध


गाय, भारत

सज़ा के तौर सिर्फ इतना तय किया गया कि गोहत्या करने वाले को ब्राह्मणों को भोजन खिलाना पड़ेगा.
धर्मशास्त्रों में यह कोई बड़ा अपराध नहीं है इसलिए प्राचीनकाल में इसपर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया गया.
हाँ, अलबत्ता इतना ज़रूर हुआ मुग़ल बादशाहों के दौर में कि राज दरबार में जैनियों का प्रवेश था, इसलिए कुछ ख़ास ख़ास मौक़ों पर गोहत्या पर पाबंदी रही.

अभियान


गाय, भारत

सारा विवाद 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ जब आर्य समाज की स्थापना हुई और स्वामी दयानंद सरस्वती ने गोरक्षा के लिये अभियान चलाया.
और इसके बाद ही ऐसा चिह्नित कर दिया गया कि जो 'बीफ़' बेचता और खाता है वो मुसलमान है.
इसी के बाद साम्प्रदायिक तनाव भी होने शुरू हो गए. उससे पहले साम्प्रदायिक दंगे नहीं होते थे.
वैसे गोवंश की एक पूजा होती है जिसका नाम 'गोपाष्टमी' है. इसके अलावा गाय के लिए अलग से कोई मंदिर नहीं होते.
कहीं किसी ने मंदिर बना लिए हों तो अलग बात है. मंदिर तो फ़िल्मी सितारों के भी बनाए गए हैं.

बीफ पर रोक!


गाय, भारत

मूल सवाल यह है कि राज्य यानी सरकार खाने पर अपना क़ानून चला सकती है या नहीं?
जब आप यह कहते हैं कि देश के बहुसंख्यकों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए बीफ पर प्रतिबंध लगाना चाहिए तो आप इन्हीं में से एक वर्ग की भावनाओं को ठेस भी पहुंचा रहे हैं.
वहीं एक दूसरे वर्ग के खान-पान पर आप अतिक्रमण भी कर रहे हैं. देश में दलित बीफ़ खाते हैं और खुलेआम खाते हैं, आदिवासी खाते हैं.
दक्षिण भारतीय राज्य केरल में ब्राह्मणों को छोड़कर बाक़ी सब खाते हैं. तमिलनाडु में भी एक बड़ा वर्ग है जो बीफ़ खाता है. ऐसा लगता है कि यह सरकार सिर्फ अंधविश्वास पर चल रही है.

Thursday, September 3, 2015

देवदसी प्रथा

देव दासियां, मंदिर में पुजारिओं सहित नगरसेठों आदि की कामतृप्ति करती थी। वेश्यावृति का आधार 'भूख' है। कोई पेट की भूख मिटाने के लिए इस धंधे में आती है, तो कोई पेट के नीचे की भूख मिटाने के लिए इनके संपर्क में आते हैं। विश्व का सबसे पुराना व्यापार देह व्यापार है।

ज्ञात इतिहास केञ् अनुसार भारत के मंदिरों की देवदासियां संभवतयाः पहली वेश्याएं थी, इसी प्रकार कोस्थि में एफ्रोडाइट के मंदिर तथा आर्मीनिया में एनाइतिस के मंदिर की हायरोड्यूल (मंदिर में रहने वाली दासियां) भी इसी काल की वेश्याएं थी, जो धन के बदले देह परोस पुरुष की काम तृप्ति करती, मिलने वाले धन को मंदिर के कोष में जमा करवा देती थी। यह देव दासियां, मंदिर में पुजारिओं सहित नगरसेठों आदि की कामतृप्ति करती थी। धर्म के नाम पर चलने वाला काम वासना का यह खेल मंदिरों से निकल नगर में वेश्यावृति के रूप में फैलने लगा। देवदासी प्रथा देवदासी प्रथा भारत के दक्षिणी पश्चिम हिस्से में सदियों से चले आ रहे धार्मिक उन्माद की उपज है। जिन बालिकाओं को देवी-देवता को समर्पित किया जाता है, वह देवदासी कहलाती हैं। देवदासी का विवाह देवी-देवता से हुआ माना जाता है, वह किसी अन्य व्यक्ति से विवाह नहीं कर सकती। सभी पुरुषों में देवी-देवता का अक्श मान उसकी इच्छा पूर्ति करती हैं। 

देवदासी प्रथा भारत में आज भी महाराष्ट्र और कर्नाटक के कोल्हापुर, शोलापुर, सांगली, उस्मानाबाद, बेलगाम, बीजापुर, गुलबर्ग आदि में बेरोकटोक जारी है। कर्नाटक के बेलगाम जिले के सौदती स्थित येल्लमा देवी के मंदिर में हर वर्ष माघ पुर्णिमा जिसे 'रण्डी पूर्णिमा' भी कहते है, के दिन किशोरियों को देवदासियां बनाया जाता है। उस दिन लाखों की संख्या में भक्तजन पहुँच कर आदिवासी लड़कियों के शरीर के साथ सरेआम छेड़छाड़ करते हैं। शराब के नशे में धूत हो अपनी काम पिपास बुझाते हैं। नारी देह, पुरुष के लिए सदैव आकर्षण का केंद्र रही है। समुंद्र मन्थन के दौरान अमृत कलश दैत्यों के हाथ लग गया, तब दैत्यों से अमृत कलश वापिस लेने के लिए सुंदर नारी का रूप धरे भगवान विष्णु के यौवन पर मुग्ध हो असूरों ने अमृत कलश उन्हें सौंप दिया।

महाभारत काल के दौरान तो वेश्याओं का वर्गीकरण भी किया गया जैसे राज वेश्या, नगर वेश्या, गुप्त वेश्या (सफेदपोश, कालगर्ल की भांति) देव वेश्या (देववासी) ब्रह्मा वेश्या (तीर्थ स्थान पर रहने वाली) आदि। प्राचीन काल से ही नारी यौवन पुरुषों केञ् बीच युद्ध का विषय बना रहा है। इस प्रकार के युद्ध को विराम देने के लिए एक निर्णय लिया गया कि जिस यौवना के कारण युद्ध छिड़ा हो उसे नगरवधु की उपाधि देकर सामुहिक भोग की वस्तु बना दिया जाए। आम्रपाली इसी कारण नगरवधु बनने को मजबूर हुई। नगरवधु की एक रात्रि की कीमत अत्याधिक होने के कारण नगर के चंद साहूकार ही उसका रसपान कर पाते थे। लेकिन सम्राट अशोक के काल की प्रख्यात नगरवधु आम्रपाली से चुनिदां किशोरियों को परीक्षण दिलवाया जाता था और चौसठ कलाओं में पारंगत होने पर उन्हें पेशे में उतार दिया जाता था। उनकी देह की कीमत नगरवधु से कम आंकी जाती थी। उन दिनों वेश्याएं समाज की सम्मानित नागरिक होती थी। इन्हें जनपद कल्याणी भी कहा जाता था। ये वेश्याएं केवल मनोरंजन ही नहीं करती थी, अपितू राजा की सलाहकार, सहचरी व गुप्तचर भी होती थी। मदनमाला, चित्रलेखा (चंद्रगुप्त मौर्य की सहचरी), चंद्रसेना (अशोक की सहचरी), देवरक्ता (हर्षवर्धन की सहचरी) के अतिरिक्त वसन्तसेवा, महानंदा, पिंगला आदि अनेक नाम उल्लेखनीय हैं।

मुगल बादशाह के जमाने में लगभग दस लाख परिवार कोठा संस्कृति के पेशे से ही बसर करते थे, देश में इनकी बाढ़ का प्रमुख कारण सिकंदरs की सेना द्वारा स्त्रियों के साथ मनमानी करना था। इनकी तुलना पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा शोषित बांग्लादेश की उन सोनार युवतियों से कर सकते हैं, उनमें से अधिकांश महिलाएं अब कलकता व मुंबई के कोठों पर दम तोड़ रही है। मुगल साम्राज्य के अन्तिम बादशाह ओरंगजेब ने गद्दीशीन होते ही अपने किले सहित सभी वजीरों, नवाबों के हरम खाली करवा दिए। हरम से निकाली गई युवतियों को बाहरी दुनियां के बारे में ज्यादा ज्ञान नहीं होता था। हरम में तो वे अपने सरनाम मालिक के अलावा किसी अन्य पुरुष का चेहरा तक भी नहीं देख पाती थी, क्योंकि हरम के पहरेदार भी ख्वाजा (हिजड़े) होते थे। हरम से निकली युवतियां यहां-वहां कोठों पर बैठ धंधा करने लगी। अंग्रेजों ने भी राजा महाराजाओं को ऐय्याश बनाए रखने के लिए वेश्याओं की सेवाओं का भरपूर प्रयोग कर अपना उल्लू सीधा किया। इतना ही नहीं अंग्रेजों ने अपने सैनिकों व कर्मचारियों के लिए कुछ विशेष कोठे सुरक्षित भी कर लिए थे।

1947 में देश आजाद हुआ। देश का बटवांरा, राजनीतिक उठापटक, भ्रष्टस्नचार, नाकाम न्याय व्यवस्था, मंहगाई, बेरोजगारी ने इतनी बहू-बेटियों को वेश्या बना डाला, जितनी पहले कभी नहीं बनीं। चूल्हे की आग जलाने हेतू गरीब युवतियां सफेदपोश पैसे वाले 'इज्जतदार' लोगों के जिस्म की आग को शांत कर मजबूरन गुप्त वेश्याएं बन गई। स्वतंत्र भारत के संविधान के अनुसार वेश्यावृति पर कानूनन प्रतिबंध है, लेकिन इसका कोई असर देखने को नहीं मिलता। ताजा स्थिति यह हो गयी है कि कई शहरों में तो कोठों के बाजारों के अलावा अनेक बस्तियां भी है, जहां घर-घर में देह व्यापार पुलिस के कथित सरंक्षण में होता है। जबरन वेश्यावृति के धन्धे में धकेली गई युवतियों की स्थिति बद् से बद्तर होती है। जिन्हें अपने पेट की भूख मिटाने केञ् लिए एक रात में बीस-बीस, तीस-तीस 'मर्दों' को शरीर बेचना पड़ता है। फिर भी उसको भरपेट अच्छा भोजन नसीब नहीं होता। यह सब हमारे भारत देश में ही संभव है।

रिपोर्टों के अध्ययन से निष्कर्य निकलता है कि अधिकांश वेश्यावृति में धकेली गई युवतियां भूख की मारी हुई हैं। बेसहारा, बलात्कार की शिकार व अपहृताएं होती है। जिन्हें एक-एक कमरे में जानवरों की तरह रखा जाता है। इन बेदम, लाचार, निर्जीव सी नारियों को नारी कहना विचित्र सा लगता है। क्या शेष है उनमें जिसे एक सामाजिक बोध के साथ नारी कहा जाए? भयंकर आर्थिक शोषण और उत्पीड़न के इन मूर्त रूपों को देखकर अपने समाज के विरुद्ध मन आक्रोश से भर जाता है। वेश्याओं की दूसरी श्रेणी में वे वेश्याएं आती है जो अपनी वर्तमान आर्थिक स्थिति को बेहतर करने के लिए वेश्यावृति करती हैं। मध्यवर्गीय परिवार से संबधित ये महिलाएं दलालों के माध्यम से ही धंधा करती हैं। इनका कार्यक्षेत्र आसपास की रिहायशी कालोनियों तक ही सीमित होता है। कुछ महिलाएं अति महत्वाकांक्षी प्रवृति की होती हैं। इसमें वह कामकाजी महिलाएं शामिल हैं जो शार्टकट से तरक्की पाने को वेताब रहती हैं। वे बॉस को अपने रूप-यौवन के जाल में फांसकर योग्य कर्मचारियों को पछाड़ तरक्की पाने में सफल हो जाती हैं। उन्नति पाने के लिए किसी भी हद को पार करने पर राजी हो जाती हैं। ऐसी महिलाओं को वेश्या कहना वेश्याओं का अपमान करना है। वेश्याओं का वर्ग ऐसा भी है, जिनके पास अच्छे वस्त्र, प्रसाधन की सुविधा है, स्थान है और अपनी एक विशिष्ट समाजिक पहचान भी है। गायन, वादन, सौंदर्य के आकर्षण में बांध ग्राहक को सम्मोहित करती है।

वर्तमान समय में देह व्यापार भी हाईटैक हो गया है। इन्टरनेट, मोबाइल पर वेश्याएं आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। दोस्ती के नाम पर राष्ट्रीय समाचार पत्रों में छपे विज्ञापन वास्तव में देह व्यापार की ओर इशारा करते हैं। नादान व कामुक प्रवृति की कॉलेज छात्राएं आधुनिकता के नाम पर इस धन्धे से संलिप्त हो जाती है। शुरूआती दौर में ये अपने पुरुष मित्रों से शारिरीक मित्रता होने पर उपहार लेती हैं, लेकिन पुरुष मित्रों की संख्या बढ़ने के साथ-2 उपहार, नकद राशि में तब्दील हो जाता है। ऐसी किशोरावस्था वेश्याओं का अन्त बहुत बुरा होता है। छोटे-छोटे ढ़ाबों से लेकर फाइव स्टार होटलों में कालगर्ल्स का जाल फैला हुआ है जो दलालों के माध्यम से बड़ी आसानी से उपल्बध हो जाती हैं। 

Friday, August 28, 2015

आरक्षण क्यों : -


नवभारत टाइम्स के ब्लॉग पर आरक्षण के विषय में कुछ लेख पढ़ने को मिले और उन्ही लेखों ने मुझे ये लेख लिखने को प्रेरित किया , जब बात आरक्षण की होती है तो सब भारतीय संविधान द्वारा अनुसूचित-जाती, जनजाति एवं अतिपिछड़ा वर्ग को मिले उस आरक्षण या विशेष अधिकारों की ही बात करतें हैं जिन्हें लागू हुए मुश्किल से 60 वर्ष ही हुए हैं ,कोई उस आरक्षण की बात नही करता जो पिछले 5000 वर्षों से भारतीय समाज में लागू थी
जिसके कारण ही इस आरक्षण को लागू करने की आवश्यकता पड़ी आज ''भारतीय गणराज्य का संविधान'' नामक संविधान, जिसका हम पालन कर रहें है जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ उससे पहले जो संविधान इस देश में लागू था जिसका पालन सभी राजा-महाराजा बड़ी ईमानदारी से करते थे उस संविधान का नाम था ''मनुस्मृति''
आधुनिक संविधान के निर्माता अंबेडकर ने सबसे पहले 25 दिसंबर 1927 को हज़ारों लोगों के सामने इस ''मनुस्मृति'' नामक संविधान को जला दिया ,क्यूंकी अब इस संविधान की कोई आवश्यकता नही थी भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान इसलिए दिया गया क्यूंकी इस देश की 85 प्रतिशत शूद्र जनसंख्या को कोई भी मौलिक अधिकार तक प्राप्त नही था
,सार्वजनिक जगहों पर ये नही जा सकते थे मंदिर में इनका प्रवेश निषिध था सरकारी नौकरियाँ इनके लिए नहीं थी , ये कोई व्यापार नही कर सकते थे , पढ़ नहीं सकते थे , किसी पर मुक़दमा नही कर सकते थे , धन जमा करना इनके लिए अपराध था , ये लोग टूटी फूटी झोपड़ियों में, बदबूदार जगहों पर, किसी तरह अपनी जिंदगिओं को घसीटते हुए काट रहे थे और यह सब ''मनुस्मृति'' और दूसरे हिंदू धर्मशास्त्रों के कारण ही हो रहा था कुछ उदाहरण देखिए-
1.संसार में जो कुछ भी है सब ब्राह्मानो के लिए ही है क्यूंकी वो जन्म से ही श्रेष्ठ है(मनुस्मृति 1/100)
2.स्वामी के द्वारा छोड़ा गया शूद्र भी दासत्व से मुक्त नही क्यूंकी यह उसका कर्म है जिससे उसे कोई नही छुड़ा सकता (8/413)
3.यदि कोई नीची जाती का व्यक्ति ऊँची जाती का कर्म अपना ले तो राजा उसे देश निकाला देदे (10/95)
4.बिल्ली, नेवला चिड़िया मेंढक, गढ़ा, उल्लू, और कौवे की हत्या में जितना पाप लगता है उतना ही पाप शूद्र (अनुसूचितजाती, जनजाति एवं अतिपिछड़ा वर्ग) की हत्या में है (मनुस्मृति 11/131)
5.शूद्र का धन ब्राह्मण निर्भीक होकर छीन सकता है क्यूंकी उसको धन रखने का अधिकार नही (8/416)
6. सब वर्णों की सेवा करना ही शूद्रो का स्वाभाविक कर्तव्य है (गीता,18/44)
7. जो अच्छे कर्म करतें हैं वे ब्राह्मण ,क्षत्रिय वश्य, इन टीन अच्छी जातियों को प्राप्त होते हैं जो बुरे कर्म करते हैं वो कुत्ते, सूअर, या शूद्र जाती को प्राप्त होते हैं (छान्दोन्ग्य उपनिषद् ,5/10/7)
8. पूजिए विप्र ग्यान गुण हीना, शूद्र ना पूजिए ग्यान प्रवीना,(रामचरित मानस)
9.ब्राह्मण दुश्चरित्र भी पूज्‍यनीए है और शूद्र जितेन्द्रीए होने पर भी तरास्कार योग्य है (पराशर स्मृति 8/33)
10. धार्मिक मनुष्या इन नीच जाती वालों के साथ बातचीत ना करें उन्हें ना देखें (मनुस्मृति 10/52)
11. धोबी , नई बधाई कुम्हार, नट, चंडाल, दास चामर, भाट, भील, इन पर नज़र पद जाए तो सूर्य की ओर देखना चाहिए इनसे बातचीत हो जाए तो स्नान करना चाहिए (व्यास स्मृति 1/11-13)
12. अगर कोई शूद्र वेद मंत्र सुन ले तो उसके कान में धातु पिघला कर डाल देना चाहिए- गौतम धर्म सूत्र 2/3/4....
ये उन असंख्य नियम क़ानूनों के उदाहरण मात्र थे, जो आज़ाद भारत से पहले देश में लागू थे ये अँग्रेज़ों के बनाए क़ानून नहीं थे ये हिंदू धर्म द्वारा बनाए क़ानून थे जिसका सभी हिंदू राजा पालन करते थे प्रारंभ में तो इन्हें सख्ती लागू करवाने के लिए सभी राजाओं के ब्राह्मणों की देख रेख में एक विशेष दल भी हुआ करता था
इन्ही नियमों के फलस्वरूप भारत में यहाँ की विशाल जनसमूह के लिए उन्नति के सभी दरवाजे बंद कर दिए गये या इनके कारण बंद हो गये, सभी अधिकार, या विशेष-अधिकार, संसाधन, एवं सुविधायें कुछ लोगों के हाथ में ही सिमट कर रह गईं, जिसके परिणाम स्वरूप भारत गुलाम हुआ
भारत की इस गुलामी ने उन करोड़ों लोगों को आज़ादी का अवसर प्रदान किया जो यहाँ शूद्र बना दिए गये थे , इस तरह धर्मांतरण का सिलसिला शुरू हुआ , बड़ी संख्या में लोगों ने इस्लाम ईसाइयत को अंगीकार किया , अंग्रेज़ो के शासन काल में उन्नीस्वी सदी के प्रारंभ से यहाँ पुनर्जागरण काल का उदय हुआ जिसके नायक यहीं के उच्च वर्गिए लोग थे जो अँग्रेज़ी शिक्षा, संस्कृति से प्रभावित हो कर देश में बदलाव लाने को प्रयत्नशील हुए ,
सती प्रथा को समाप्त किया गया स्त्री शिक्षा के द्वार खोले गये , शूड्रों को नौकरियों में स्थान दिया जाने लगा और कितनी ही क्रूर प्रताओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया ,कई परिवर्थन्शील ,संगठनों का उदय हुआ ऐसे ही समय में अंबेडकर का जन्म हुआ , समाज में कई परिवर्तन हुए थे परंतु अभी भी शूड्रों के जीवन पर इसका कोई
अम्बेडकर का जीवन संघर्ष इस बात का उदहारण है , अम्बेडकर अपने समय के विश्व के पांच सबसे बड़े विद्वानों में से एक थे ,अपने जीवन के कड़े अनुभवों को ध्यान में रखकर उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन सदियों से हिन्दू धर्म द्वारा दलित, उत्पीडित बहुसंख्य जनों के उत्थान को समर्पित करते हुए लम्बे संघर्ष में लगा दिया , जिस कारण दुनिया को पहली बार भारत के इस महान अभिशाप का ज्ञान हुआ और पशुओं का जीवन व्यतीत कर रहे उन करोड़ों लोगों को स्वाभिमान से जीवन जीने की ललक पैदा हुई , उन्होंने अपने जीवन के कीमती कई वर्ष हिन्दू समाज, हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू धर्म शाश्त्रों के अध्यन में लगाये ,
अम्बेडकर के प्रयासों का ही नतीजा था की भारत के राजनैतिक और सामाजिक स्थिति का विश्लेषण करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने सात सदस्सिए साइमन कमीशन को भारत भेजा जिसका अम्बेडकर ने स्वागत किया लेकिन कांग्रेस ने इसका बहिस्कार कर दिया, और कांग्रेस वर्किंग कमिटी द्वारा १९२८ में नए संविधान की रूप रेखा तैयार की गई जिसके लिए सभी धर्म एवं सम्प्रदायों को बुलाया बुलाया गया लेकिन अम्बेडकर को इससे दूर रखा गया
१२ से १९ जनवरी १९३१ को गोलमेज की प्रथम कांफ्रेंस में पहली बार देश से बाहर अम्बेडकर ने अपने विचार रखे , और शूद्रो की सही तस्वीर पेश की इसी कांफ्रेंस में उन्होंने कानून के शाशन और शारीरिक ताकत की जगह संवैधानिक अनुशाशन की प्रतिष्ठा का दावा किया , सम्मलेन में जो ९ सब कमिटी बनी उन सभी में उन्हें सदस्य बना लिया गया , उनकी योग्यता उनके सारपूर्ण वक्तव्यों की वजह से यह संभव हो पाया, फ्रेंचाइजी कमिटी में उन्होंने दलितों के लिए अलग चुनाव क्षेत्र की मांग की और उनकी सभी मांगों को अंग्रेजी सरकार को मानना पड़ा
अम्बेडकर की इस अभूतपूर्व सफलता ने कांग्रेस की नींद हराम कर दी क्यूंकि सवर्णों की इस पार्टी को डर हुआ की सदियों से जिन्हें लातों तले दबा के रखा , उनसे अपने सभी गंदे से गंदे काम करवाए, अगर उन्हें सत्ता मिल गई तब तो हमारी आने वाली पीडिया बर्बाद हो जाएँगी , हमारा धर्म जो इनसे छीन कर हमें सारी सुविधाएं सदियों से देता आया है वो संकट में पड जायेगा , यही सब सोच कर कांग्रेस के इशारों पर गाँधी ने अम्बेडकर को मिले अधिकारों के विरूद्ध आमरण अनशन की नौटंकी शुरू कर दी , जिसके कारण अंत में राष्ट्र के दबाव में आकर अम्बेडकर को "POONA - PACT " पर हस्ताक्षर करने पड़े जिसके अनुसार अग्रिम संविधान बनाने का मौका अम्बेडकर को दिया जाना तय हुआ बदले में अम्बेडकर को गोलमेज में मिले अपने सभी अधिकारों को छोड़ना पड़ा
इस तरह वर्तमान संविधान का जो की मजबूरी में बना आधारशिला तैयार हुई जिसमें उन्होंने आरक्षण का प्रावधान डाला और दलितों के लिए सभी कानून बनाये अब जरा थोड़ी देर के लिए यह कल्पना कीजिये की अगर अम्बेडकर दलितों के लिए १०० प्रतिशत आरक्षण की मांग करते जो की उनका हक़ है तो क्या होता , परन्तु अम्बेडकर ने ऐसा नहीं किया ,
आज जब सरकारी नौकरियां वैश्वीकरण के नाम पर पूरे षड्यंत्र करी तरीके से समाप्त की जा रहीं हैं , ऐसे में शूद्र एक बार फिर हाशिये पर आगया है ,ऐसे में ये कहना की बचे खुचे आरक्षण को भी समाप्त कर दिया जाये एक बार फिर से शूद्र को गुलाम बनाने की सोची समझी साजिश ही तो है
आज जितने दलित अम्बेडकर के प्रावधानों के कारण सरकारी नौकरियों तक पहुचे हैं और सुख से दो जून की रोटी खा रहे हैं , उससे कहीं अधिक ब्रह्माण आज भी हिन्दू धर्म शाश्त्रों के सदियों पुराने प्रावधानों के कारण देश के लाखों मंदिरों में पुजारी बन अरबों-खरबों के वारे न्यारे कर रहे हैं और देश की खरबों की संपत्ति पर कब्ज़ा जमाये बैठे हैं क्या किसी ने इस आरक्षण को समाप्त करने की बात की....?
क्या किसी ने आज भी दलितों पर होने वालें अत्याचारों को रोकने के लिए आमरण अनशन किया ? क्या किसी ने मिर्च पुर, गोहाना, खैरलांजी,झज्जर,के आरोपियों के लिए फांसी की मांग की ? क्यूँ नहीं पहले ब्रह्माण क्षत्रिय और वैश्य अपने अपने जातीय पहचानों को समाप्त करते ? जाती स्वयं नष्ट हो जाएगी जाती नष्ट होते ही आरक्षण की समस्या सदा के लिए नष्ट हो जाएगी ,ऊपर की जाती वाले क्यूँ नहीं अपने बच्चों की शादियाँ दलितों के बच्चों संग करने की पहल करते ? लेकिन यहाँ तो बात ही दूसरी है इनके बच्चे अगर दलितों में प्रेम विवाह करना चाहें तो ये उनका क़त्ल कर देते हैं धन्य हैं
एक दलित मित्र अपने ब्लॉग में कहतें हैं की अब तो ऐसा नहीं होता तो श्रीमान जी जरा अख़बार पढ़ा करो पता चल जायेगा आज भी इस देश में संविधान के इतने प्रावधानों के बावजूद प्रत्येक दिन तीन दलितों को उनकी जाती के कारण मार दिया जाता है प्रत्येक दिन एक दलित महिला से उसकी जाती के कारण बलात्कार होता हे
आरक्षण खतम करने की बात सब करते है लेकिन जातिवाद खतम करने की कोई बात नही करता.
जातिवाद कि कारण आरक्षण आया है आप लोग जातिवाद खतम कर दो आरक्षण अपने आप खतम हो जयेगा!

Monday, August 26, 2013

स्व० बी०पी०मंडल की जयन्ती 25 अगस्त पर विशेष


मधेपुरा की सबसे बड़ी हस्तियों में सबसे बड़ा नाम जिनके जीवन काल में इतनी बड़ी-बड़ी उपलब्धियां कि हर व्यक्ति, जो मधेपुरा से जुड़ा है, उन पर गर्व करता हो, कद इतना ऊँचा कि शायद ही कोई सख्स उनके अगल बगल भी खड़ा रह सके .जी हाँ, स्व० बी० पी० मंडल एक ऐसा नाम है जिन्हें लेते हम नतमस्तक हो जाते हैं. आज ही के दिन 25 अगस्त 1919 को जन्मे स्व० बी० पी० मंडल ने मधेपुरा का नाम विश्व के मानचित्र पर छाने में महती भूमिका निभाई. क्या-क्या उपलब्धियां रही उनकी? कैसी सी थी उनकी जीवनशैली? बहुत सारी बातें थी उनमे जिनका अनुकरण कर हम समाज को बदल सकते हैं. आइए आज स्व० बी० पी० मंडल जयन्ती पर हम श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं उनकी पूरी जीवन को याद करते हुए ................
   
    स्व० बिन्ध्येश्वरी प्रसाद मंडल का जन्म 25 अगस्त 1919 में बनारस में उसी दिन हुआ जब 51 वर्ष के आयु में बीमार होने के कारण उनके पिता स्व० रास बिहारी लाल मंडल अंतिम सांसे ले रहे थे.
       उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव मुरहो एवं मधेपुरा के सिरीस इंस्टीट्यूट वर्तमान शि.न.प्र.मंडल उच्च विद्यालय मधेपुरा में हुआ था.हाई स्कूल कि शिक्षा राज हाई स्कूल दरभंगा में तथा कॉलेज की शिक्षा स्नातक ,अंग्रेजी प्रतिष्ठा तक पटना कॉलेज, पटना में प्राप्त किये थे. राज हाई स्कूल दरभंगा कि एक घटना बी० पी० मंडल के अन्याय का विरोध करने कि उनकी स्वाभाविक गुण को उजागर करता है. बी० पी० मंडल राज हाई स्कूल में रहते थे. वहाँ पहले सवर्ण जातियों के छात्रों को खाना खिलाया जाता था. तत्पशचात अन्य छात्रों को खिलाया जाता था. मंडल जी इस परिपाटी का कड़ा विरोध कर इसे खत्म करवाया .
       मंडल जी 1945 से 1951 तक अवैतनिक दंडाधिकारी के पद पर भी रहे थे. इस पद से इन्होंने तत्कालीन भागलपुर के जिलाधिकारी के के अफसरशाही रवैये के विरोध में त्यागपत्र दे दिया था .
       1952 में भारतीय संविधान के तहत आयोजित प्रथम आम चुनाव में ही वे बिहार विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हो गए थे. वे सदन में शीघ्र प्रखर एवं मुखर वक्ता के रूप में अपनी पहचान बना लिए थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह इनसे से प्रभावित हो इन्हें कोई पद देना चाहते थे लेकिन मंडल जी कैबिनेट मंत्री से कुछ भी कम बनने को तैयार नहीं थे. श्री कृष्ण सिंह ने 1957 का चुनाव जीतने के बाद कैबिनेट मंत्री बनाने की बात कही थी लेकिन दुर्भाग्यवश मंडल जी वह चुनाव हार गए थे. 1962 में वे पुनः विधानसभा के सदस्य बने .लकिन इस समय तक श्री कृष्ण सिंह का देहान्त हो चुका था. बी० पी० मंडल सही कम करने में किसी तरह का भय नहीं खाते थे. विधानसभा में एक बार ग्वाला शब्द के प्रयोग पर उन्होंने कड़ी आपत्ति व्यक्त की थी. जिस पर तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष श्री वी० पी० वर्मा को नियमन देना पड़ा था कि ग्वाला शब्द का प्रयोग असंसदीय है. 1965 में मधेपुरा से 12 कि० मी० दूर पामा गाँव में हुए पुलिस कांड पर जब मंडल जी बोलना चाहे तब उनके दल नेता तथा तत्कालीन मुख्यमंत्री के० बी० सहाय ने उन्हें बोलने से मना कर दिया. लेकिन मंडल जी अपनी अंतरात्मा की आवाज को दबाने की बजाय उसी समय सदन में ही कांग्रेस त्याग कर विरोधी बेंच पर चले गए तथा पुलिस के जुल्म का विरोध खुलकर किये. मंडल जी कंग्रेस से उस समय अलग हुए जब कांग्रेस में प्रवेश पाने के लिए विधायकों की लाइन लगी रहती थी. डॉ० लोहिया मंडल जी के इस साहसपूर्ण कार्य से काफी प्रभावित हुए थे. फलतः वे संयुक्त सोसलिस्ट पार्टी में शामिल कर लिए गए तथा उन्हें इस पार्टी के राज्य संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. बी० पी० मंडल का कांग्रेस से अलग होना कांग्रेस के लिए काफी नुकसानदेह हुआ जबकि संसोपा को इससे जबरदस्त फायदा हुआ. बी० पी० मंडल संसोपा के प्रचार-प्रसार करने हेतु पूरे राज्य का सघन दौरा किया करते थे. मंडल जी को टिकट वितरण में पूरी छूट दी गई थी. फलतः संसोपा जो 1962 में मात्र 7 सीटें जीती थी, वह 1967 के चुनाव में 69 सीटें जीतीं परिणामतः पहली बार राज्य में गैर कांग्रेसी सरकार बनी जिसमें बी० पी० मंडल स्वास्थ्य मंत्री बने.
      स्वास्थ्य मंत्री के रूप में इनके निर्णय की निष्पक्षता, दृढ़ता एवं ईमानदारी से इनके पार्टी विधायक एवं सहयोगी नाखुश हो गए और डॉ० लोहिया के पास उल्टा सीधा शिकायत कर दिए. इस पर डॉ० लोहिया मंडल जी से मंत्री पद छोड संसद आने के लिए कहने लगे, क्योंकि मंडल जी संसद सदस्य ही थे.पहले मंडल जी मंत्री पद त्यागना चाहते थे, लेकिन उनके पार्टी विधायकों ने जिस प्रकार से इन पर डॉ० लोहिया के सम्मुख कीचड़ उछाला था और इसी आधार पर डॉ० लोहिया इनसे त्यागपत्र देने की बात कहने लगे. उसे मंडल जी ने अपनी प्रतिष्ठा पर आघात समझा और मंत्री पद नहीं त्यागने का निर्णय लिया, इससे डॉ० लोहिया से मंडल जी का मतभेद बढाता ही गया. मंडल जी स्वाभिमान पर ठेस कतई बर्दाश्त नहीं करते थे, चाहे सामने कोई भी व्यक्ति क्योँ ना हो. उन दिनों डॉ० लोहिया से उनके पार्टी सदस्य जुबान लड़ाने के बात में भी नहीं सोचता था. दोनों नेताओं के मतभेद का परिणाम हुआ कि बी० पी० मंडल संसोपा से अलग होकर शोषित दल का गठन किये. .डॉ० लोहिया को बाद में मंडल जी के मंत्री के रूप में निर्णय की निष्पक्षता एवं ईमानदारी का पता चला तो वे मंडल जी से मतभेद हो जाने पर काफी पश्चताप किये थे. डॉ० लोहिया जब मौत से जूझ रहे थे, उस समय भी वे मंडल जी को याद कर रहे थे.
     कालांतर में 1 फरवरी 1968 को कांग्रेस के सहयोग से बी० पी० मंडल के मुख्य मंत्रित्व में शोषित दल सरकार का गठन हुआ. मात्र 45 दिन में इनका पतन हो गया. ऐसा मंडल जी के निष्पक्ष, सही, ईमानदार एवं दृढ निर्णय लेने के कारण हुआ. सरकार के पतन का मुख्य कारण यह था कि संविदा सरकार द्वारा कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी पूर्व मंत्रियों के विरुद्ध भष्टाचार की जाँच करने हेतु अय्यर कमीशन का गठन हुआ था. चूंकि शोषित दल सरकार कांग्रेस के समर्थन पर टिकी थी, अतः प्रभावित कांग्रेस सदस्य अय्यर कमीशन को खत्म करने दबाव मंडल सरकार पर देने लगे, लेकिन मंडल जी इस अनैतिक काम को करने के लिए तैयार नहीं हुए. फलतः कुछ कॉंग्रेसियों के द्वारा सरकार को गिरा दिया गया. यहाँ उल्लेखनीय है कि सरकार के विरुद्ध प्रस्ताव लाने का फैसला जब कांग्रेसियों ने किया था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी कांग्रेस की छवि खराब नहीं होने देने के लिए तथा कांग्रेस में फूट रोकने के लिए अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान के पूर्व ही मंडल जी से पद त्याग देने का आग्रह किया.लेकिन मंडल जी मतदान का सामना करने का मन बना लिए थे और कांग्रेस को बेनकाब करना चाहते थे. स्व० श्रीमती गाँधी जी मंडल जी को ऊँचे पदों का लोभ भी दीं थीं, लेकिन वे इस लोभ से अपने निर्णय से विचलित नहीं हुए .
        जिस समय शोषित दल सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पर बहस चल रही थी उस समय भी स्व० इंदिरा गाँधी जी फोन पर मंडल जी से संपर्क करना चाहतीं थीं. इस समय तक यह स्पष्ट हो चुका कि सरकार गिर जाएगी क्यूंकि कांग्रेस के करीब 16 वरिष्ठ नेता कांग्रेस छोडकर अलग हो गए थे. लेकिन तब भी मंडल जी विचलित नहीं हुए और उन्होंने अपने एक सहयोगी से कहा मैं श्रीमती गाँधी से फोन पर बात नहीं करुंगा. रधानमंत्री को कह दो कि मैं त्याग नहीं करुंगा. मैं एसेम्बली का सामना कर मतदान कराउंगा. मुझे कोई भी उच्च पद नहीं चाहिए जो वो देना चाहतीं हैं .
       यद्दपि बी० पी० मंडल की सरकार अल्पकालीन रही. लेकिन भारत की राजनीति विशेष रूप से पिछडों की राजनीति में इसका दूरगामी क्रन्तिकारी अच्छा प्रभाव पड़ा. यदि दो दिन के सतीश सिंह सरकार को छोड़ दिया जाये तो बी० पी० मंडल उत्तरी भारत में पिछड़े वर्ग के सर्वप्रथम मुख्यमंत्री बने. बी० पी० मंडल का मुख्यमंत्री बनने हेतु उनका विधान मंडल का सदस्य होना अनिवार्य था. इस हेतु मंडल जी पहले श्री सतीश सिंह को मुख्यमंत्री बनवाये. तत्पश्च्त श्री सिंह मंडल जी को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किये और इस प्रकार मंडल का मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ हुआ.अतः वास्तव में मंडल जी ही पिछड़े वर्ग के प्रथम मुख्यमंत्री माने जा सकते हैं.
     आज भी मंडल सरकार को उसके निर्णय की निष्पक्षता, स्पष्टता, दृढता, एवं ईमानदारी के लिए याद किया जाता है. इसके कार्यकलाप से जनता एवं नौकरशाहों में समान रूप से आशा जगी थी कि मंडल जी बिहार की दशा में क्रांतिकारी सुधार ला सकते हैं. मंडल सरकार के पतन के बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया था, लेकिन राज्यपाल के सलाहकारों ने मंडल सरकार के किसी भी निर्णय को गलत एवं असंगत नहीं कहा .बल्कि फाइलों के अवलोकन के बाद मंडल सरकार के निर्णय को काफी सराहा था .
      वे 1968 में ही पुनः उपचुनाव जीतकर संसद सदस्य बने. 1972 में मंडल विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए तथा 1975 में जे० पी० आंदोलन के समर्थन में विधानसभा से त्यागपत्र दे दिए. 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर संसद सदस्य बने मंडल जी सही बात कहने में दल की सीमा में नहीं बंधे थे. 1978 में इंदिरा गाँधी जब चिकमंगलूर से संसदीय उपचुनाव जीतकर संसद में गयीं थीं तो मात्र 2 घंटे के जनता पार्टी की सरकार द्वारा प्रस्ताव पारित कर श्रीमती गाँधी की सदन सदस्यता समाप्त करने की कार्यवाही का कांग्रेस सदस्यों को छोड अन्य दलों के सदस्यों में एक मात्र बी० पी० मंडल जनता पार्टी के वरिष्ठ सदस्य होते हुए भी इस निर्णय का कड़ा विरोध किया था. यूं तो उपरोक्त सभी घटनाएँ मंडल जी के राष्ट्रीय पहचान को रेखांकित करता है लेकिन द्वितीय अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष के रूप में वे भारत के दलितों, शोषितों, पिछडों, कमजोर लोगों, अपंगों आदि को जो अनमोल भेंट दिया, उससे वे राष्ट्रव्यापी व्यक्तित्व ही नहीं विश्व प्रसिद्ध एवं युग पुरुष की श्रेणी में आ गए. आज वे दलितों, पिछड़ों, शोषितों एवं कमजोर लोगों के ह्रदय में निवास करतें हैं. बी.पी.मंडल की ईमानदारी, निष्पक्षता एवं तेजस्विता से प्रभावित होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इन्हें 01.01.1979 को अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया था. इस एतिहासिक कार्य का संपादन बी.पी.मंडल कितने लगन से और ईमानदारी से किये वह लिखने की आवश्यकता नहीं है.
      मंडल रिपोर्ट बनाने में मंडल जी को कठिन परिश्रम करना पड़ा. इसमें मंडल जी की विद्वता ज्ञान की तीक्ष्णता एवं अध्यक्ष रहते हुए कहे थे कि- लोग मुझे पिछडों का दुश्मन समझते हैं, लेकिन मेरा रिपोर्ट बताएगा कि मैं पिछडों का दोस्त हूँ या दुश्मन. आज सभी लोग मंडल जी को पिछडों एवं गरीबों का दोस्त मानते हैं. रिपोर्ट में ना सिर्फ आरक्षण सम्बंधी सुझाव और ना ही किसी जाति विशेष के हित का रिपोर्ट है, वरन इसमें सम्पूर्ण विकास पर विस्तार से सुझाव दिया गया है तथा यह रिपोर्ट किसी जाति विशेष को सम्पूर्ण भारत के लिए पिछडों या आगडा नहीं मान लिया है, वरन जो जाति जिस राज्य में पिछड़ा है उसे वहाँ कि राज्य-सूची में पिछड़ा तथा यदि जाति दूसरे राज्य में अगड़ा है तो उसे उस राज्य कि सूची में अगड़ा माना गया है, जैसे असम में कायस्थ कर्नाटक में राजपूत तथा 12 राज्यों में ब्राह्मण भी पिछड़ा वर्ग में शामिल किये गए हैं.
      अतः स्पष्ट है कि श्री मंडल का दृष्टिकोण व्यापक था. मंडल जी जीवनपर्यन्त बिहार राज्य नागरिक परिषद के उपाध्यक्ष रहे. इनका असामयिक निधन 13 अप्रैल 1982 को ह्रदय गति रुक जाने के कारण हुआ
      डॉ.के.के.मंडल के शब्दों में, "मंडल जी की मृत्यु के बाद से मधेपुरा में रिक्तता आ गयी है. यह प्राकृतिक नियम है कि रिक्तता रहती नहीं है स्वतः भर जाती है, किन्तु कुछ व्यक्तित्व होतें हैं जो अमिट छाप छोड़ जातें हैं. मंडल जी की निर्भीकता, अदम्य उत्साह और अटूट विश्वास तथा आत्मबल सदा अनुकरणीय रहेगा. वे सत्ता और प्रशासन के पिछलग्गू नहीं थे. वे ऐसे जन प्रतिनिधि थे जिनके पीछे सत्ता का प्रशासन चलता था. उनके व्यक्तित्व में स्वाभिमान कूट कूट कर भरा हुआ था. जिस दिन श्री मोरारजी देसाई का मंत्रीमंडल गिरा था मैं दिल्ली में ही था. उनके साथी सांसद श्री विनायक प्रसाद यादव मंत्री मंडल गिराने वाले सांसद में थे. उससे पूर्व संध्या में मैं और विनायक जी साथ-साथ उनके निवास पर 21 ,जनपथ गया था. विनायक ने मंडल जी से अनुरोध किया कि मोरारजी देसाई में मंत्रिमंडल को गिराने में साथ दें उन्होंने स्पष्टतः अस्वीकार कर दिया. उनका तर्क था कि मोरारजी भाई की सरकार अच्छी सरकार है और उन्होंने मुझे सम्मान दिया है. मै इस सरकार को गिराने का कलंक अपने माथे नहीं लूँगा. वे अच्छी तरह जानते थे कि इसकी कीमत उन्हें चुनाव में चुकानी पड़ेगी और उसकी कीमत चुकानी भी पड़ी पर वे संकल्प से विचलित नहीं हुए.वे एक दृढ प्रतिज्ञ व्यक्ति थे और इसका निर्वाह जीवनपर्यंत किया.मधेपुरा कि जनता उनकी निर्भीकता, स्पष्टवादिता और दृढ प्रतिज्ञा की प्रशंसक आज भी है.चुनाव हारना और जीतना कई बातों पर निर्भर करता है. राजनीतिक चरित्र का निर्वाह करना बहुत ही कठिन है."  

Sunday, August 25, 2013

मधेपुरा टाइम्स को धन्यवाद्

बीपीएससी में सफल होकर नियोजित शिक्षक ने मनवाया प्रतिभा का लोहा

|दिव्य प्रकाश की रिपोर्ट|20 अगस्त 2013|
मधेपुरा के एक नियोजित शिक्षक ने बीपीएससी में शानदार सफलता हासिल कर दिखा दिया कि पर हम भी किसी से कम नहीं है. यही नहीं इससे पूर्व भी कई परीक्षाओं में इस नियोजित शिक्षक कुमार दीनबंधु ने उलेखनीय प्रदर्शन किया है.
मधेपुरा जिले के बिहारीगंज के अनिरूद्व मघ्य मधुकरचक गमैल के प्रखंड शिक्षक कुमार दीनबन्धु ने 53 वीं से 55वीं बीपीएससी की परीक्षा में अवर निबंधन अधिकारी के रुप में सफल हो कर इस क्षेत्र का नाम रोशन किया है और साथ ही साथ नियोजित शिक्षकों के सम्मान को भी उपर उठाया है. प्रखंड के मधुकरचक ग्रामवासी एवं वर्तमान समय में बिहारीगंज में रह रहे स्वास्थ्य विभाग में अचिकित्सा सहायक के पद पर नियुक्त बनारसी रजक एवं झारखंड में शिक्षिका के पद पर नियुक्त कनकलता देवी तथा पूर्व में सहारा समय न्यूज चैनल में ब्यूरो रह चुके प्रोग्राम पदाधिकारी डा0 नित्यगोपाल के अनुज कुमार दीनबन्धु ने अनेक शैक्षणिक तथा प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त कर चुके हैं।
विद्यालय में शैक्षणिक कार्य करते हुए दीनबन्धु ने पोस्ट ग्रेजुएशन, फिर बी. एड. की डिग्री नालंदा खुला विश्वविद्यालय से प्राप्त किया। साथ ही अपनी मेहनत एवं योग्यता का लोहा मनवाते हुए विश्वविद्यालय शिक्षक की पात्रता परीक्षा युजीसी नेट  की जून 2012 की परीक्षा में तथा बिहार कर्मचारी चयन आयोग के सचिवालय सहायक की परीक्षा में  सफलता प्राप्त किया । राज्य द्वारा आयोजित शिक्षक मूल्यांकन परीक्षा में भी जिले में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर सम्मान प्राप्त करते हुए वर्तमान समय में केंद्रीय टीइटी , एस टीइटी आदि की परीक्षाओं में उत्कृष्ट अंको के साथ सफल घोषित हुए । वर्तमान समय में  मधेपुरा विश्वविद्यालय  में इतिहास विभाग में पी0एच0डी में शोधरत् छात्र दीनबन्धु ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मधुकरचक गांव के ही बुनियादी विद्यालय से प्राप्त कर तिलकामांझी विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन किया तथा मई 2007 में नियोजित शिक्षक के रूप में पदस्थापित हुए। राज्य सरकार द्वारा चपरासी के योग्य भी न समझे जाने वाले  शिक्षकों के लिए  उन्हीं में से एक का अवर निबंधन अधिकारी के रूप में चयनित होना  वाकई गर्व का विषय है। श्री दीनबन्धु ने अपनी सफलता का श्रेय माता-पिता, भैया-भाभी एवं  गुरूजनों के आशीर्वाद एवं  माता गायत्री की असीम कृपा के साथ - साथ गया में कार्यरत एस0डी0एम0 एवं बड़े भाई शंकर शरण, आर्यन आइ0 एस0 एकेडमी  पटना के डाइरेक्टर शशि आर्यन , इण्डियन इकोनोमिक्स सर्विस में कार्यरत मुकेश कुमार एवं रजिस्ट्रार संजय झा आदि को देते हैं.
इस मौके पर उदाकिशुनगंज के एसडीपीओ मनोज कुमार सुधांशू एवं  मुख्य चिकित्सा पदाधिकारी डा0 डी. के. सिन्हा, श्री प्रबोध प्रकाश, डा0 मिथिलेश कुमार, दामोदर प्रसाद सिंह, वशिष्ट ना0 झा , दिलीप कुमार , प्रेमभूषण सिन्हा , शैलेश कुमार , रमण कुमार आदि ने हार्दिक बधाई दी है।

Monday, June 24, 2013

कर्पूरी जी का अज्ञातवास

सन् 1975 के जून में इस देश में जब आपातकाल लागू हुआ, तब संयोग से कर्पूरी ठाकुर नेपाल के राजबिराज में ही थे. आपातकाल की गंभीरता को समझते हुए उन्होंने नेपाल में ही रह कर भारत में जारी आपातकाल विरोधी भूमिगत आंदोलन के कार्यकर्ताओं के संपर्क में रहने का फैसला किया. भारत सरकार को इस बात की सूचना मिल गयी. नेपाल पुलिस और वहां की खुफिया एजेंसी भी कर्पूरी जी पर निगरानी रख रही थी. नेपाल सरकार ने उनसे कहा कि वे एक जगह से दूसरी जगह जाने से पहले नेपाली अधिकारियों से अनुमति ले लें. कपरूरी ठाकुर की नेपाल में उपस्थिति को लेकर भारत सरकार चिंतित थी.


भारत सरकार ने नेपाल सरकार से कहा कि वह कर्पूरी ठाकुर को उसके हवाले कर दे. नेपाल ने साफ इनकार कर दिया और कहा कि जिस तरह नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बीपी कोइराला भारत में रह रहे हैं, उसी तरह कर्पूरी ठाकुर भी नेपाल में हैं. नेपाल के इस रुख से कर्पूरी जी को तात्कालिक राहत मिल गयी. वे चाहते थे कि नेपाल में ही भूमिगत रह कर भारत में जारी इंदिरा सरकार विरोधी गतिविधियों पर नजर रखें और जरूरत पड़े तो उन्हें संचालित भी करें. देश में दमन जारी था. जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर सहित सभी बड़े नेता गिरफ्तार हो चुके थे. प्रतिपक्षी राजनीतिक गतिविधियों पर पूर्ण प्रतिबंध था. मीडिया पर भी कठोर सेंसरशिप लग गया था. भारत आने का मतलब था, जेल में बंद हो जाना. ऐसे में नेपाल पर भारत का भारी दबाव पड़ा. नेपाल भी भारत से संबंध खराब नहीं करना चाहता था. इसलिए उसने कर्पूरी ठाकुर पर भी पांच सूत्री प्रतिबंध लगा दिया. मीडिया के प्रतिनिधियों से मिलने पर पाबंदी लगा दी गयी.
कर्पूरी जी पर यह भी प्रतिबंध लगा कि वे न तो समाचार पत्रों या पत्रिकाओं के लिए कोई लेख लिखेंगे और न ही कोई बयान जारी करेंगे.
यह पाबंदी भी कि नेपाल से बाहर वे किसी प्रकार का पत्र व्यवहार नहीं करेंगे. विदेशी दूतावासों के काठमांडू स्थित कर्मचारियों से किसी प्रकार का संबंध नहीं रखना होगा. यहां तक कि नेपाल के राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं से भी संबंध रखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. नेपाल यह भी नहीं चाहता था कि ठाकुर तराई में रहें, क्योंकि वहां से भारत में गतिविधियां चलाना आसान था. जुलाई के दूसरे सप्ताह में नेपाल सरकार उन्हें विमान से काठमांडू ले गयी. वहां उन्हें नजरबंद कर दिया गया. नेपाल की सीआइडी के अलावा भारतीय दूतावास की खुफिया पुलिस भी कर्पूरी जी पर निगरानी रखने लगी. वे जहां जाते थे, सब पीछे लग जाते थे. सोने की जगह में भी पासवाले कमरे में खुफिया पुलिस सोती थी. इतना ही नहीं, कर्पूरी ठाकुर ने 1977 में एक पत्रिका से भेंटवार्ता में बताया था कि अपने नेपाल के अज्ञातवास के दौरान मैं जिन लोगों से संपर्क में आया, उन पर नेपाल सरकार ने जुल्म भी ढाये. याद रहे कि आपातकाल के बाद कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने.

कर्पूरी जी ने बताया था कि काठमांडू के मेरे मित्र प्रो एसएन वर्मा की प्रोफेसरी नेपाल ने छुड़ा दी. वर्मा का यही कसूर था कि उन्होंने मुङो काठमांडू स्थित अपने आवास में शरण दी थी. जब मैं नेपाल से भाग निकला तो वर्मा को दस महीने तक जेल में रखा गया. कपरूरी जी के चुनाव क्षेत्र का एक व्यक्ति काठमांडू में रह कर छोटा मोटा काम करता था. पुलिस ने उसे इतना तंग किया कि उसने नेपाल छोड़ दिया. छपरा के एक व्यक्ति का काठमांडू में एक सैलून था, जहां कर्पूरी जी दाढ़ी बनवाते थे, उसे पुलिस ने इतना पीटा कि वह अधमरा हो गया. कर्पूरी जी के अनुसार नेपाल पुलिस इन लोगों पर इसलिए नाराज थी कि कैसे मैं नेपाल से निकल भागा और इन लोगों ने पुलिस को क्यों इसकी पूर्व सूचना नहीं दी.

याद रहे कि नेपाल की खुफिया पुलिस को चकमा देकर 6 सितंबर, 1975 को लिवास और अपना नाम बदल कर कर्पूरी ठाकुर थाई एयरवेज के जहाज से काठमांडू से कलकत्ता पहुंच गये. वहां बिहार के चर्चित कांग्रेसी नेता राजो सिंह और रघुनाथ झा मिले. उन्होंने कर्पूरी जी को पहचान लिया. राजो सिंह ने कागज के बहाने कर्पूरी जी की जेब में कुछ रुपये भी रख दिये. कांग्रेसी होते हुए भी इन लोगों ने कर्पूरी जी के बारे में पुलिस को सूचना नहीं दी, जबकि पुलिस उन्हें बेचैनी से तलाश रही थी. संभवत: ऐसा कर्पूरी जी के शालीन स्वभाव और ईमानदार छवि के कारण हुआ

Wednesday, June 19, 2013

प्रेरणास्रोत हैं बीएन मंडल




आजादी की लड़ाई में वे कई बार जेल गये और यातनाएं झोली. जमींदार परिवार से आने पर भी वे हमेशा गरीबों और शोषितों के बीच रह कर उन्हीं के हिमायती बने रहे. वे जीप और कार की सवारी छोड़ गांवों में बैलगाड़ी की सवारी करते थे. ऐसे वक्त में, जब पद और सत्ता पाने के लिए तमाम तरह के जोड़तोड़ की खबरें आ रही हों, यह जानना दिलचस्प होगा कि उन्होंने बिहार की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार में अहम पद लेने से इनकार कर दिया था. हम बात कर रहे हैं आजादी की लड़ाई के साथ-साथ देश में समाजवाद की स्थापना में अहम योगदान देनेवाले प्रखर नेता भूपेंद्र नारायण मंडल की, 

बीएन मंडल का जन्म मधेपुरा जिले के रानीपट्टी गांव में संपन्न जमींदार परिवार में 1 फरवरी, 1904 को हुआ. उन्होंने भागलपुर से स्नातक व पटना विवि से कानून की डिग्री प्राप्त ली. विद्यार्थी जीवन में ही वे गांधीजी के असहयोग आंदोलन से जुड़ गये थे. वकालत पेशे में आने पर 1942 में हजारों लोगों के साथ मधेपुरा कचहरी पर यूनियन जैक उतार कर हिंदुस्तान का झंडा फहरा दिया. उन्होंने उसी दिन वकालत छोड़ दी.

1937 में कई प्रांतों में आंतरिक सरकार की स्थापना हुई. कांग्रेस प्रगतिशील गुट के बड़े नेताओं ने सोशलिस्ट ग्रुप की स्थापना की, जिसके नेता जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, आचार्य नरेंद्रदेव, डॉ लोहिया आदि थे. भूपेंद्र बाबू इन्हीं नेताओं के साथ सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो समाजवादी सिद्धांतों के लिए संघर्षरत रहे. 1948 में सोशलिस्ट पार्टी कांग्रेस से अलग हो गयी. 1952 में उसने आम चुनाव लड़ा. कांग्रेस सत्ता में आ गयी. जेपी 1954 में राजनीति से संन्यास लेकर भूदान आंदोलन में चले गये और आगे चल कर सोशलिस्ट पार्टी भी दो भागों, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी, में बंट गयी. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को चुनाव चिह्न् झोपड़ी मिला और सोशलिस्ट पार्टी को बरगद का पेड़, जो सोशलिस्टों का 1952 में भी चुनाव चिह्न् था. समाजवादियों के एक ग्रुप यानी सोशलिस्ट पार्टी का नेतृत्व डॉ लोहिया कर रहे थे, जिसमें मधु लिमये, मामा बालेश्वर दयाल, बद्रीविशाल पित्ती, पीवी राजू, जार्ज फर्नाडीस, इंदुमति केलकर, राजनारायण, रामसेवक यादव एवं बीएन मंडल सरीखे नेता थे.

बीएन मंडल बिहार सोशलिस्ट पार्टी के आधार स्तंभ बने. इस पार्टी के नेताओं में अक्षयवट राय, सीताराम सिंह, बाबूलाल शास्त्री, तुलसी दास मेहता, पूरनचंद, उपेन्द्र नारायण वर्मा, भोला सिंह, श्रीकृष्ण सिंह, अवधेश मिश्र, जगदेव प्रसाद, रामइकबाल वरसी, सच्चिदानंद सिंह, जितेन्द्र यादव आदि थे. 1957 के चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी (पेड़ छाप) से बीएन मंडल एकमात्र विधायक चुने गये थे. पर, डॉ लोहिया की नीति, सिद्धांत सिद्धांत, स्पष्टवादिता और खुले एजेंडे को जनता ने खूब पसंद किया. बीएन मंडल ने अपनी प्रतिभा एवं सिद्धांतों के बल पर बिहार विधानसभा में अकेले रह कर भी समाजवादी विचारों को प्रचारित-प्रसारित करते हुए भाषण और विरोध के बल पर गरीबों और शोषितों के सवाल को बड़े पैमाने पर उठाया. 1962 में सोशलिस्ट पार्टी के सात विधायक चुने गये और 1967 में पेड़ छाप वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के 70 विधायक चुने गये. संसोपा बिहार में पहली गैर कांग्रेसी सरकार के प्रमुख घटक दल के रूप में उभरी. बीएन मंडल को बिहार की पहली गैर कांग्रेसी सरकार में प्रमुख पद दिया जा रहा था, लेकिन उन्होंने उस पद को लेने से इनकार कर दिया. उनकी राय थी कि जो व्यक्ति संसद सदस्य हो, विधानसभा सदस्य नहीं हो, उसे नैतिकता व सिद्धांत के आधार पर विधानसभा का कोई पद धारण नहीं करना चाहिए. डॉ लोहिया भी प्रारंभ से ही विधायिका के एक पद को छोड़ कर लालच या लोभ में दूसरे बड़े पद पर जाने को बेईमानी समझते थे. लोहिया जी के विचारों से बीएन मंडल सहमत थे. इसलिए संसद सदस्य होने के कारण वे मुख्यमंत्री या मंत्री पद लेने को तैयार नहीं हुए. उसी सरकार में महामाया बाबू मुख्यमंत्री और संसोपा की ओर से कपरूरी ठाकुर उप मुख्यमंत्री बने थे.
सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में भूपेन्द्र बाबू ने 1962 में कांग्रेस नेता ललित नारायण मिश्र को लोकसभा चुनाव में हराया था. वे 1966 और 1972 में राज्यसभा के लिए चुने गये. अपने संसदीय जीवन में उन्होंने राज्य और राष्ट्रहित में हमेशा गंभीरतापूर्वक अपनी राय दी. विदेशनीति और अंतरराष्ट्रीय घटनाओं पर भी उनकी पैनी दृष्टि रहती थी.