सन् 1975 के जून में इस देश में जब आपातकाल लागू हुआ, तब संयोग से
कर्पूरी ठाकुर नेपाल के राजबिराज में ही थे. आपातकाल की गंभीरता को समझते
हुए उन्होंने नेपाल में ही रह कर भारत में जारी आपातकाल विरोधी भूमिगत
आंदोलन के कार्यकर्ताओं के संपर्क में रहने का फैसला किया. भारत सरकार को
इस बात की सूचना मिल गयी. नेपाल पुलिस और वहां की खुफिया एजेंसी भी कर्पूरी
जी पर निगरानी रख रही थी. नेपाल सरकार ने उनसे कहा कि वे एक जगह से दूसरी
जगह जाने से पहले नेपाली अधिकारियों से अनुमति ले लें. कपरूरी ठाकुर की
नेपाल में उपस्थिति को लेकर भारत सरकार चिंतित थी.
भारत सरकार ने नेपाल सरकार से कहा कि वह कर्पूरी ठाकुर को उसके हवाले कर
दे. नेपाल ने साफ इनकार कर दिया और कहा कि जिस तरह नेपाल के पूर्व
प्रधानमंत्री बीपी कोइराला भारत में रह रहे हैं, उसी तरह कर्पूरी ठाकुर भी
नेपाल में हैं. नेपाल के इस रुख से कर्पूरी जी को तात्कालिक राहत मिल गयी.
वे चाहते थे कि नेपाल में ही भूमिगत रह कर भारत में जारी इंदिरा सरकार
विरोधी गतिविधियों पर नजर रखें और जरूरत पड़े तो उन्हें संचालित भी करें.
देश में दमन जारी था. जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, अटल
बिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर सहित सभी बड़े नेता गिरफ्तार हो चुके थे.
प्रतिपक्षी राजनीतिक गतिविधियों पर पूर्ण प्रतिबंध था. मीडिया पर भी कठोर
सेंसरशिप लग गया था. भारत आने का मतलब था, जेल में बंद हो जाना. ऐसे में
नेपाल पर भारत का भारी दबाव पड़ा. नेपाल भी भारत से संबंध खराब नहीं करना
चाहता था. इसलिए उसने कर्पूरी ठाकुर पर भी पांच सूत्री प्रतिबंध लगा दिया.
मीडिया के प्रतिनिधियों से मिलने पर पाबंदी लगा दी गयी.
कर्पूरी जी पर यह भी प्रतिबंध लगा कि वे न तो समाचार पत्रों या पत्रिकाओं के लिए कोई लेख लिखेंगे और न ही कोई बयान जारी करेंगे.
यह
पाबंदी भी कि नेपाल से बाहर वे किसी प्रकार का पत्र व्यवहार नहीं करेंगे.
विदेशी दूतावासों के काठमांडू स्थित कर्मचारियों से किसी प्रकार का संबंध
नहीं रखना होगा. यहां तक कि नेपाल के राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं से
भी संबंध रखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. नेपाल यह भी नहीं चाहता था कि
ठाकुर तराई में रहें, क्योंकि वहां से भारत में गतिविधियां चलाना आसान था.
जुलाई के दूसरे सप्ताह में नेपाल सरकार उन्हें विमान से काठमांडू ले गयी.
वहां उन्हें नजरबंद कर दिया गया. नेपाल की सीआइडी के अलावा भारतीय दूतावास
की खुफिया पुलिस भी कर्पूरी जी पर निगरानी रखने लगी. वे जहां जाते थे, सब
पीछे लग जाते थे. सोने की जगह में भी पासवाले कमरे में खुफिया पुलिस सोती
थी. इतना ही नहीं, कर्पूरी ठाकुर ने 1977 में एक पत्रिका से भेंटवार्ता में
बताया था कि अपने नेपाल के अज्ञातवास के दौरान मैं जिन लोगों से संपर्क
में आया, उन पर नेपाल सरकार ने जुल्म भी ढाये. याद रहे कि आपातकाल के बाद
कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने.
कर्पूरी जी ने बताया था कि काठमांडू के मेरे मित्र प्रो एसएन वर्मा की
प्रोफेसरी नेपाल ने छुड़ा दी. वर्मा का यही कसूर था कि उन्होंने मुङो
काठमांडू स्थित अपने आवास में शरण दी थी. जब मैं नेपाल से भाग निकला तो
वर्मा को दस महीने तक जेल में रखा गया. कपरूरी जी के चुनाव क्षेत्र का एक
व्यक्ति काठमांडू में रह कर छोटा मोटा काम करता था. पुलिस ने उसे इतना तंग
किया कि उसने नेपाल छोड़ दिया. छपरा के एक व्यक्ति का काठमांडू में एक
सैलून था, जहां कर्पूरी जी दाढ़ी बनवाते थे, उसे पुलिस ने इतना पीटा कि वह
अधमरा हो गया. कर्पूरी जी के अनुसार नेपाल पुलिस इन लोगों पर इसलिए नाराज
थी कि कैसे मैं नेपाल से निकल भागा और इन लोगों ने पुलिस को क्यों इसकी
पूर्व सूचना नहीं दी.
याद रहे कि नेपाल की खुफिया पुलिस को चकमा देकर 6
सितंबर, 1975 को लिवास और अपना नाम बदल कर कर्पूरी ठाकुर थाई एयरवेज के
जहाज से काठमांडू से कलकत्ता पहुंच गये. वहां बिहार के चर्चित कांग्रेसी
नेता राजो सिंह और रघुनाथ झा मिले. उन्होंने कर्पूरी जी को पहचान लिया.
राजो सिंह ने कागज के बहाने कर्पूरी जी की जेब में कुछ रुपये भी रख दिये.
कांग्रेसी होते हुए भी इन लोगों ने कर्पूरी जी के बारे में पुलिस को सूचना
नहीं दी, जबकि पुलिस उन्हें बेचैनी से तलाश रही थी. संभवत: ऐसा कर्पूरी जी
के शालीन स्वभाव और ईमानदार छवि के कारण हुआ
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