Saturday, September 1, 2012

आरक्षण नहीं, जाति है समस्या

यह बहुत मासूम सा तर्क लगता है कि आरक्षण खत्म कीजिये, जाति अपने आप चली जायेगी. यह तर्क कहीं भी टकरा सकता है. उच्चवर्ग में शामिल हो जाने के सपने देखती मध्यवर्गीय आंखों में, अन्ना के आंदोलन में लहराते क्रांतिकारी मनुवादी मोर्चे के झंडे में, कहीं भी. यह तर्क देने वाले ज्यादातर लोग सवर्ण  वर्ग से आते हैं. यह तर्क देते हुए उनकी आवाज में अंतिम सच जान चुके होने की आश्वस्ति होती है.
वे जानते हैं आरक्षण देश के विकास के लिए घातक है, योग्यता के खिलाफ है और अगर ठीक भी हो तो कैसे इसका लाभ जरूरतमंदों तक न पहुंच कर दलित-बहुजन वर्ग के अपने अभिजात वर्ग तक सिमट कर रह जाता है.

पर फिर यहीं एक सवाल बनता है कि इस तर्क की राजनीतिक और दर्शनशास्त्रीय अवस्थिति क्या है? विशुद्ध समाजवैज्ञानिक संदर्भो में देखें तो इस तर्क की वैधता और विश्वसनीयता है भी या नहीं, और है तो कितनी है? कार्य-कारण की सबसे भोथरी समझ के साथ भी देखते ही यह तर्क भरभरा कर ढह जाता है. ऐसे कि आरक्षण जाति के पहले नहीं, बाद में आता है. आरक्षण कारण नहीं परिणाम है. परिणाम भी ऐसा नहीं कि खुद ही से निकल आया हो. यह ऐसा परिणाम है, जो कारण के कुप्रभावों से पैदा हुए असंतोष से, प्रतिकार से निकला है.
उत्पीड़ित अस्मिताओं के संघर्षो के उफान वाले आज के दौर में सत्ता और संसाधनों पर काबिज वर्गो द्वारा यथास्थिति बनाये रखने के लिए तर्क गढ़े जा रहे हैं. बीते लंबे दौर से इस राजनीति का केंद्रीय कार्यभार ही रहा है कि समस्या को जाति से खिसका कर आरक्षण पर ला खड़ा किया जाये, और अगर नहीं भी हो सके तो आरक्षण को भी जाति के बराबर की ही समस्या तो बना ही दिया जाये. अपने इस प्रयास में वे काफी हद तक सफल भी हुए हैं.

आरक्षण जातिप्रथा के अंत के लिए न तो अंतिम विकल्प है, न सबसे कारगर. बाबासाहेब आंबेडकर के ही विचारों को याद करें तो जाति को खत्म करने का असली तरीका अंतरजातीय विवाह है, क्योंकि वे श्रेणीगत पहचानों में बंटे समाज में बंटवारे और ऊंच-नीच की मूल इकाई को ही ध्वस्त कर देंगे. पर जब तक ऐसा नहीं हो पा रहा है तब तक क्या करें? तब तक क्या जाति और आरक्षण दोनों को समस्या मान लें, जैसा कि प्रगतिशील खेमे के कुछ साथी करने लगे हैं?

आरक्षण को लेकर एक और सवाल है जो कुछ प्रगतिशीलों के दिमाग में भी खटकता है. यह सवाल है आरक्षण की तथाकथित अंतहीनता का. उन्हें लगता है कि आरक्षण सिर्फ दस सालों के लिए दिया गया था, फिर इसे अब तक क्यों बढ़ाया जा रहा है? दस साल का आरक्षण सिर्फ संसद में था, और वह भी अन्य शर्तो के साथ. नौकरियों में आरक्षण का सवाल उससे बहुत अलग है और यह एक तरफ तो संविधानप्रदत्त विभेदन को रोक समानता को बढ़ाने वाले मूल अधिकारों से निकलता है और दूसरी तरफ आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े तबकों के उत्थान के लिए प्रयास करने की उस जिम्मेदारी से, जिसके लिए संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत राज्य वचनबद्ध है. फिर उस आरक्षण के साथ इसे जोड़ देना चूक नहीं साजिश है. इसके साथ एक और नुक्ता जुड़ता है, क्या सच में जातिगत विभेदन और उससे पैदा होने वाली गैरबराबरी खत्म हो गयी है और अब समस्या जाति नहीं आरक्षण है?

अब जरा अपने देश के निजी क्षेत्र पर नजर डालें, जहां अभी हाल में ही यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ ब्रिटिश कोलंबिया के डी अजित व अन्यों के अध्ययन में चौंकाने वाले आंकड़े मिले हैं. भारत की शीर्ष 1000 निजी कंपनियों के निदेशक बोर्ड में सवर्ण 93 प्रतिशत, ओबीसी 3.8 प्रतिशत और दलित 3.5 प्रतिशत हैं! इससे ज्यादा और कुछ कहने की शायद जरूरत नहीं होनी चाहिए. यही तर्क भी है आरक्षण के कम-से-कम तब तक जारी रखने का, जब तक कि भारतीय समाज बहुलवादी न हो जाये. आखिर किसी भी समाज के उत्थान की कोशिशों के लिए उसके अंदर एक खास वर्ग का होना जरूरी है.

आप चाहे उसे मध्यवर्ग कहें, या वामपंथ की भाषा में हरावल, जब तक रोज दिहाड़ी करके खाने की चिंता से मुक्त ऐसा वर्ग अस्मिताओं के अंदर पैदा नहीं होगा, उनके मुक्त होने की संभावना बहुत कम होगी. आरक्षण ने तमाम उत्पीड़ित अस्मिताओं के अंदर ऐसा ही वर्ग खड़ा करने में सफलता पायी है. आरक्षण लागू रखने के पीछे सबसे मजबूत तर्क बस यही है. और यह भी कि एक ऐसा वर्ग खड़ा हो जाने के बाद सामाजिक शक्ति-संबंधों में आने वाले बदलावों से जाति को बड़ा धक्का लगेगा और तब शायद आरक्षण की जरूरत ही न रह जाये.