Monday, August 26, 2013

स्व० बी०पी०मंडल की जयन्ती 25 अगस्त पर विशेष


मधेपुरा की सबसे बड़ी हस्तियों में सबसे बड़ा नाम जिनके जीवन काल में इतनी बड़ी-बड़ी उपलब्धियां कि हर व्यक्ति, जो मधेपुरा से जुड़ा है, उन पर गर्व करता हो, कद इतना ऊँचा कि शायद ही कोई सख्स उनके अगल बगल भी खड़ा रह सके .जी हाँ, स्व० बी० पी० मंडल एक ऐसा नाम है जिन्हें लेते हम नतमस्तक हो जाते हैं. आज ही के दिन 25 अगस्त 1919 को जन्मे स्व० बी० पी० मंडल ने मधेपुरा का नाम विश्व के मानचित्र पर छाने में महती भूमिका निभाई. क्या-क्या उपलब्धियां रही उनकी? कैसी सी थी उनकी जीवनशैली? बहुत सारी बातें थी उनमे जिनका अनुकरण कर हम समाज को बदल सकते हैं. आइए आज स्व० बी० पी० मंडल जयन्ती पर हम श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं उनकी पूरी जीवन को याद करते हुए ................
   
    स्व० बिन्ध्येश्वरी प्रसाद मंडल का जन्म 25 अगस्त 1919 में बनारस में उसी दिन हुआ जब 51 वर्ष के आयु में बीमार होने के कारण उनके पिता स्व० रास बिहारी लाल मंडल अंतिम सांसे ले रहे थे.
       उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव मुरहो एवं मधेपुरा के सिरीस इंस्टीट्यूट वर्तमान शि.न.प्र.मंडल उच्च विद्यालय मधेपुरा में हुआ था.हाई स्कूल कि शिक्षा राज हाई स्कूल दरभंगा में तथा कॉलेज की शिक्षा स्नातक ,अंग्रेजी प्रतिष्ठा तक पटना कॉलेज, पटना में प्राप्त किये थे. राज हाई स्कूल दरभंगा कि एक घटना बी० पी० मंडल के अन्याय का विरोध करने कि उनकी स्वाभाविक गुण को उजागर करता है. बी० पी० मंडल राज हाई स्कूल में रहते थे. वहाँ पहले सवर्ण जातियों के छात्रों को खाना खिलाया जाता था. तत्पशचात अन्य छात्रों को खिलाया जाता था. मंडल जी इस परिपाटी का कड़ा विरोध कर इसे खत्म करवाया .
       मंडल जी 1945 से 1951 तक अवैतनिक दंडाधिकारी के पद पर भी रहे थे. इस पद से इन्होंने तत्कालीन भागलपुर के जिलाधिकारी के के अफसरशाही रवैये के विरोध में त्यागपत्र दे दिया था .
       1952 में भारतीय संविधान के तहत आयोजित प्रथम आम चुनाव में ही वे बिहार विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हो गए थे. वे सदन में शीघ्र प्रखर एवं मुखर वक्ता के रूप में अपनी पहचान बना लिए थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह इनसे से प्रभावित हो इन्हें कोई पद देना चाहते थे लेकिन मंडल जी कैबिनेट मंत्री से कुछ भी कम बनने को तैयार नहीं थे. श्री कृष्ण सिंह ने 1957 का चुनाव जीतने के बाद कैबिनेट मंत्री बनाने की बात कही थी लेकिन दुर्भाग्यवश मंडल जी वह चुनाव हार गए थे. 1962 में वे पुनः विधानसभा के सदस्य बने .लकिन इस समय तक श्री कृष्ण सिंह का देहान्त हो चुका था. बी० पी० मंडल सही कम करने में किसी तरह का भय नहीं खाते थे. विधानसभा में एक बार ग्वाला शब्द के प्रयोग पर उन्होंने कड़ी आपत्ति व्यक्त की थी. जिस पर तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष श्री वी० पी० वर्मा को नियमन देना पड़ा था कि ग्वाला शब्द का प्रयोग असंसदीय है. 1965 में मधेपुरा से 12 कि० मी० दूर पामा गाँव में हुए पुलिस कांड पर जब मंडल जी बोलना चाहे तब उनके दल नेता तथा तत्कालीन मुख्यमंत्री के० बी० सहाय ने उन्हें बोलने से मना कर दिया. लेकिन मंडल जी अपनी अंतरात्मा की आवाज को दबाने की बजाय उसी समय सदन में ही कांग्रेस त्याग कर विरोधी बेंच पर चले गए तथा पुलिस के जुल्म का विरोध खुलकर किये. मंडल जी कंग्रेस से उस समय अलग हुए जब कांग्रेस में प्रवेश पाने के लिए विधायकों की लाइन लगी रहती थी. डॉ० लोहिया मंडल जी के इस साहसपूर्ण कार्य से काफी प्रभावित हुए थे. फलतः वे संयुक्त सोसलिस्ट पार्टी में शामिल कर लिए गए तथा उन्हें इस पार्टी के राज्य संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. बी० पी० मंडल का कांग्रेस से अलग होना कांग्रेस के लिए काफी नुकसानदेह हुआ जबकि संसोपा को इससे जबरदस्त फायदा हुआ. बी० पी० मंडल संसोपा के प्रचार-प्रसार करने हेतु पूरे राज्य का सघन दौरा किया करते थे. मंडल जी को टिकट वितरण में पूरी छूट दी गई थी. फलतः संसोपा जो 1962 में मात्र 7 सीटें जीती थी, वह 1967 के चुनाव में 69 सीटें जीतीं परिणामतः पहली बार राज्य में गैर कांग्रेसी सरकार बनी जिसमें बी० पी० मंडल स्वास्थ्य मंत्री बने.
      स्वास्थ्य मंत्री के रूप में इनके निर्णय की निष्पक्षता, दृढ़ता एवं ईमानदारी से इनके पार्टी विधायक एवं सहयोगी नाखुश हो गए और डॉ० लोहिया के पास उल्टा सीधा शिकायत कर दिए. इस पर डॉ० लोहिया मंडल जी से मंत्री पद छोड संसद आने के लिए कहने लगे, क्योंकि मंडल जी संसद सदस्य ही थे.पहले मंडल जी मंत्री पद त्यागना चाहते थे, लेकिन उनके पार्टी विधायकों ने जिस प्रकार से इन पर डॉ० लोहिया के सम्मुख कीचड़ उछाला था और इसी आधार पर डॉ० लोहिया इनसे त्यागपत्र देने की बात कहने लगे. उसे मंडल जी ने अपनी प्रतिष्ठा पर आघात समझा और मंत्री पद नहीं त्यागने का निर्णय लिया, इससे डॉ० लोहिया से मंडल जी का मतभेद बढाता ही गया. मंडल जी स्वाभिमान पर ठेस कतई बर्दाश्त नहीं करते थे, चाहे सामने कोई भी व्यक्ति क्योँ ना हो. उन दिनों डॉ० लोहिया से उनके पार्टी सदस्य जुबान लड़ाने के बात में भी नहीं सोचता था. दोनों नेताओं के मतभेद का परिणाम हुआ कि बी० पी० मंडल संसोपा से अलग होकर शोषित दल का गठन किये. .डॉ० लोहिया को बाद में मंडल जी के मंत्री के रूप में निर्णय की निष्पक्षता एवं ईमानदारी का पता चला तो वे मंडल जी से मतभेद हो जाने पर काफी पश्चताप किये थे. डॉ० लोहिया जब मौत से जूझ रहे थे, उस समय भी वे मंडल जी को याद कर रहे थे.
     कालांतर में 1 फरवरी 1968 को कांग्रेस के सहयोग से बी० पी० मंडल के मुख्य मंत्रित्व में शोषित दल सरकार का गठन हुआ. मात्र 45 दिन में इनका पतन हो गया. ऐसा मंडल जी के निष्पक्ष, सही, ईमानदार एवं दृढ निर्णय लेने के कारण हुआ. सरकार के पतन का मुख्य कारण यह था कि संविदा सरकार द्वारा कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी पूर्व मंत्रियों के विरुद्ध भष्टाचार की जाँच करने हेतु अय्यर कमीशन का गठन हुआ था. चूंकि शोषित दल सरकार कांग्रेस के समर्थन पर टिकी थी, अतः प्रभावित कांग्रेस सदस्य अय्यर कमीशन को खत्म करने दबाव मंडल सरकार पर देने लगे, लेकिन मंडल जी इस अनैतिक काम को करने के लिए तैयार नहीं हुए. फलतः कुछ कॉंग्रेसियों के द्वारा सरकार को गिरा दिया गया. यहाँ उल्लेखनीय है कि सरकार के विरुद्ध प्रस्ताव लाने का फैसला जब कांग्रेसियों ने किया था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी कांग्रेस की छवि खराब नहीं होने देने के लिए तथा कांग्रेस में फूट रोकने के लिए अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान के पूर्व ही मंडल जी से पद त्याग देने का आग्रह किया.लेकिन मंडल जी मतदान का सामना करने का मन बना लिए थे और कांग्रेस को बेनकाब करना चाहते थे. स्व० श्रीमती गाँधी जी मंडल जी को ऊँचे पदों का लोभ भी दीं थीं, लेकिन वे इस लोभ से अपने निर्णय से विचलित नहीं हुए .
        जिस समय शोषित दल सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पर बहस चल रही थी उस समय भी स्व० इंदिरा गाँधी जी फोन पर मंडल जी से संपर्क करना चाहतीं थीं. इस समय तक यह स्पष्ट हो चुका कि सरकार गिर जाएगी क्यूंकि कांग्रेस के करीब 16 वरिष्ठ नेता कांग्रेस छोडकर अलग हो गए थे. लेकिन तब भी मंडल जी विचलित नहीं हुए और उन्होंने अपने एक सहयोगी से कहा मैं श्रीमती गाँधी से फोन पर बात नहीं करुंगा. रधानमंत्री को कह दो कि मैं त्याग नहीं करुंगा. मैं एसेम्बली का सामना कर मतदान कराउंगा. मुझे कोई भी उच्च पद नहीं चाहिए जो वो देना चाहतीं हैं .
       यद्दपि बी० पी० मंडल की सरकार अल्पकालीन रही. लेकिन भारत की राजनीति विशेष रूप से पिछडों की राजनीति में इसका दूरगामी क्रन्तिकारी अच्छा प्रभाव पड़ा. यदि दो दिन के सतीश सिंह सरकार को छोड़ दिया जाये तो बी० पी० मंडल उत्तरी भारत में पिछड़े वर्ग के सर्वप्रथम मुख्यमंत्री बने. बी० पी० मंडल का मुख्यमंत्री बनने हेतु उनका विधान मंडल का सदस्य होना अनिवार्य था. इस हेतु मंडल जी पहले श्री सतीश सिंह को मुख्यमंत्री बनवाये. तत्पश्च्त श्री सिंह मंडल जी को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किये और इस प्रकार मंडल का मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ हुआ.अतः वास्तव में मंडल जी ही पिछड़े वर्ग के प्रथम मुख्यमंत्री माने जा सकते हैं.
     आज भी मंडल सरकार को उसके निर्णय की निष्पक्षता, स्पष्टता, दृढता, एवं ईमानदारी के लिए याद किया जाता है. इसके कार्यकलाप से जनता एवं नौकरशाहों में समान रूप से आशा जगी थी कि मंडल जी बिहार की दशा में क्रांतिकारी सुधार ला सकते हैं. मंडल सरकार के पतन के बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया था, लेकिन राज्यपाल के सलाहकारों ने मंडल सरकार के किसी भी निर्णय को गलत एवं असंगत नहीं कहा .बल्कि फाइलों के अवलोकन के बाद मंडल सरकार के निर्णय को काफी सराहा था .
      वे 1968 में ही पुनः उपचुनाव जीतकर संसद सदस्य बने. 1972 में मंडल विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए तथा 1975 में जे० पी० आंदोलन के समर्थन में विधानसभा से त्यागपत्र दे दिए. 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर संसद सदस्य बने मंडल जी सही बात कहने में दल की सीमा में नहीं बंधे थे. 1978 में इंदिरा गाँधी जब चिकमंगलूर से संसदीय उपचुनाव जीतकर संसद में गयीं थीं तो मात्र 2 घंटे के जनता पार्टी की सरकार द्वारा प्रस्ताव पारित कर श्रीमती गाँधी की सदन सदस्यता समाप्त करने की कार्यवाही का कांग्रेस सदस्यों को छोड अन्य दलों के सदस्यों में एक मात्र बी० पी० मंडल जनता पार्टी के वरिष्ठ सदस्य होते हुए भी इस निर्णय का कड़ा विरोध किया था. यूं तो उपरोक्त सभी घटनाएँ मंडल जी के राष्ट्रीय पहचान को रेखांकित करता है लेकिन द्वितीय अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष के रूप में वे भारत के दलितों, शोषितों, पिछडों, कमजोर लोगों, अपंगों आदि को जो अनमोल भेंट दिया, उससे वे राष्ट्रव्यापी व्यक्तित्व ही नहीं विश्व प्रसिद्ध एवं युग पुरुष की श्रेणी में आ गए. आज वे दलितों, पिछड़ों, शोषितों एवं कमजोर लोगों के ह्रदय में निवास करतें हैं. बी.पी.मंडल की ईमानदारी, निष्पक्षता एवं तेजस्विता से प्रभावित होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इन्हें 01.01.1979 को अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया था. इस एतिहासिक कार्य का संपादन बी.पी.मंडल कितने लगन से और ईमानदारी से किये वह लिखने की आवश्यकता नहीं है.
      मंडल रिपोर्ट बनाने में मंडल जी को कठिन परिश्रम करना पड़ा. इसमें मंडल जी की विद्वता ज्ञान की तीक्ष्णता एवं अध्यक्ष रहते हुए कहे थे कि- लोग मुझे पिछडों का दुश्मन समझते हैं, लेकिन मेरा रिपोर्ट बताएगा कि मैं पिछडों का दोस्त हूँ या दुश्मन. आज सभी लोग मंडल जी को पिछडों एवं गरीबों का दोस्त मानते हैं. रिपोर्ट में ना सिर्फ आरक्षण सम्बंधी सुझाव और ना ही किसी जाति विशेष के हित का रिपोर्ट है, वरन इसमें सम्पूर्ण विकास पर विस्तार से सुझाव दिया गया है तथा यह रिपोर्ट किसी जाति विशेष को सम्पूर्ण भारत के लिए पिछडों या आगडा नहीं मान लिया है, वरन जो जाति जिस राज्य में पिछड़ा है उसे वहाँ कि राज्य-सूची में पिछड़ा तथा यदि जाति दूसरे राज्य में अगड़ा है तो उसे उस राज्य कि सूची में अगड़ा माना गया है, जैसे असम में कायस्थ कर्नाटक में राजपूत तथा 12 राज्यों में ब्राह्मण भी पिछड़ा वर्ग में शामिल किये गए हैं.
      अतः स्पष्ट है कि श्री मंडल का दृष्टिकोण व्यापक था. मंडल जी जीवनपर्यन्त बिहार राज्य नागरिक परिषद के उपाध्यक्ष रहे. इनका असामयिक निधन 13 अप्रैल 1982 को ह्रदय गति रुक जाने के कारण हुआ
      डॉ.के.के.मंडल के शब्दों में, "मंडल जी की मृत्यु के बाद से मधेपुरा में रिक्तता आ गयी है. यह प्राकृतिक नियम है कि रिक्तता रहती नहीं है स्वतः भर जाती है, किन्तु कुछ व्यक्तित्व होतें हैं जो अमिट छाप छोड़ जातें हैं. मंडल जी की निर्भीकता, अदम्य उत्साह और अटूट विश्वास तथा आत्मबल सदा अनुकरणीय रहेगा. वे सत्ता और प्रशासन के पिछलग्गू नहीं थे. वे ऐसे जन प्रतिनिधि थे जिनके पीछे सत्ता का प्रशासन चलता था. उनके व्यक्तित्व में स्वाभिमान कूट कूट कर भरा हुआ था. जिस दिन श्री मोरारजी देसाई का मंत्रीमंडल गिरा था मैं दिल्ली में ही था. उनके साथी सांसद श्री विनायक प्रसाद यादव मंत्री मंडल गिराने वाले सांसद में थे. उससे पूर्व संध्या में मैं और विनायक जी साथ-साथ उनके निवास पर 21 ,जनपथ गया था. विनायक ने मंडल जी से अनुरोध किया कि मोरारजी देसाई में मंत्रिमंडल को गिराने में साथ दें उन्होंने स्पष्टतः अस्वीकार कर दिया. उनका तर्क था कि मोरारजी भाई की सरकार अच्छी सरकार है और उन्होंने मुझे सम्मान दिया है. मै इस सरकार को गिराने का कलंक अपने माथे नहीं लूँगा. वे अच्छी तरह जानते थे कि इसकी कीमत उन्हें चुनाव में चुकानी पड़ेगी और उसकी कीमत चुकानी भी पड़ी पर वे संकल्प से विचलित नहीं हुए.वे एक दृढ प्रतिज्ञ व्यक्ति थे और इसका निर्वाह जीवनपर्यंत किया.मधेपुरा कि जनता उनकी निर्भीकता, स्पष्टवादिता और दृढ प्रतिज्ञा की प्रशंसक आज भी है.चुनाव हारना और जीतना कई बातों पर निर्भर करता है. राजनीतिक चरित्र का निर्वाह करना बहुत ही कठिन है."  

Sunday, August 25, 2013

मधेपुरा टाइम्स को धन्यवाद्

बीपीएससी में सफल होकर नियोजित शिक्षक ने मनवाया प्रतिभा का लोहा

|दिव्य प्रकाश की रिपोर्ट|20 अगस्त 2013|
मधेपुरा के एक नियोजित शिक्षक ने बीपीएससी में शानदार सफलता हासिल कर दिखा दिया कि पर हम भी किसी से कम नहीं है. यही नहीं इससे पूर्व भी कई परीक्षाओं में इस नियोजित शिक्षक कुमार दीनबंधु ने उलेखनीय प्रदर्शन किया है.
मधेपुरा जिले के बिहारीगंज के अनिरूद्व मघ्य मधुकरचक गमैल के प्रखंड शिक्षक कुमार दीनबन्धु ने 53 वीं से 55वीं बीपीएससी की परीक्षा में अवर निबंधन अधिकारी के रुप में सफल हो कर इस क्षेत्र का नाम रोशन किया है और साथ ही साथ नियोजित शिक्षकों के सम्मान को भी उपर उठाया है. प्रखंड के मधुकरचक ग्रामवासी एवं वर्तमान समय में बिहारीगंज में रह रहे स्वास्थ्य विभाग में अचिकित्सा सहायक के पद पर नियुक्त बनारसी रजक एवं झारखंड में शिक्षिका के पद पर नियुक्त कनकलता देवी तथा पूर्व में सहारा समय न्यूज चैनल में ब्यूरो रह चुके प्रोग्राम पदाधिकारी डा0 नित्यगोपाल के अनुज कुमार दीनबन्धु ने अनेक शैक्षणिक तथा प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त कर चुके हैं।
विद्यालय में शैक्षणिक कार्य करते हुए दीनबन्धु ने पोस्ट ग्रेजुएशन, फिर बी. एड. की डिग्री नालंदा खुला विश्वविद्यालय से प्राप्त किया। साथ ही अपनी मेहनत एवं योग्यता का लोहा मनवाते हुए विश्वविद्यालय शिक्षक की पात्रता परीक्षा युजीसी नेट  की जून 2012 की परीक्षा में तथा बिहार कर्मचारी चयन आयोग के सचिवालय सहायक की परीक्षा में  सफलता प्राप्त किया । राज्य द्वारा आयोजित शिक्षक मूल्यांकन परीक्षा में भी जिले में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर सम्मान प्राप्त करते हुए वर्तमान समय में केंद्रीय टीइटी , एस टीइटी आदि की परीक्षाओं में उत्कृष्ट अंको के साथ सफल घोषित हुए । वर्तमान समय में  मधेपुरा विश्वविद्यालय  में इतिहास विभाग में पी0एच0डी में शोधरत् छात्र दीनबन्धु ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मधुकरचक गांव के ही बुनियादी विद्यालय से प्राप्त कर तिलकामांझी विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन किया तथा मई 2007 में नियोजित शिक्षक के रूप में पदस्थापित हुए। राज्य सरकार द्वारा चपरासी के योग्य भी न समझे जाने वाले  शिक्षकों के लिए  उन्हीं में से एक का अवर निबंधन अधिकारी के रूप में चयनित होना  वाकई गर्व का विषय है। श्री दीनबन्धु ने अपनी सफलता का श्रेय माता-पिता, भैया-भाभी एवं  गुरूजनों के आशीर्वाद एवं  माता गायत्री की असीम कृपा के साथ - साथ गया में कार्यरत एस0डी0एम0 एवं बड़े भाई शंकर शरण, आर्यन आइ0 एस0 एकेडमी  पटना के डाइरेक्टर शशि आर्यन , इण्डियन इकोनोमिक्स सर्विस में कार्यरत मुकेश कुमार एवं रजिस्ट्रार संजय झा आदि को देते हैं.
इस मौके पर उदाकिशुनगंज के एसडीपीओ मनोज कुमार सुधांशू एवं  मुख्य चिकित्सा पदाधिकारी डा0 डी. के. सिन्हा, श्री प्रबोध प्रकाश, डा0 मिथिलेश कुमार, दामोदर प्रसाद सिंह, वशिष्ट ना0 झा , दिलीप कुमार , प्रेमभूषण सिन्हा , शैलेश कुमार , रमण कुमार आदि ने हार्दिक बधाई दी है।

Monday, June 24, 2013

कर्पूरी जी का अज्ञातवास

सन् 1975 के जून में इस देश में जब आपातकाल लागू हुआ, तब संयोग से कर्पूरी ठाकुर नेपाल के राजबिराज में ही थे. आपातकाल की गंभीरता को समझते हुए उन्होंने नेपाल में ही रह कर भारत में जारी आपातकाल विरोधी भूमिगत आंदोलन के कार्यकर्ताओं के संपर्क में रहने का फैसला किया. भारत सरकार को इस बात की सूचना मिल गयी. नेपाल पुलिस और वहां की खुफिया एजेंसी भी कर्पूरी जी पर निगरानी रख रही थी. नेपाल सरकार ने उनसे कहा कि वे एक जगह से दूसरी जगह जाने से पहले नेपाली अधिकारियों से अनुमति ले लें. कपरूरी ठाकुर की नेपाल में उपस्थिति को लेकर भारत सरकार चिंतित थी.


भारत सरकार ने नेपाल सरकार से कहा कि वह कर्पूरी ठाकुर को उसके हवाले कर दे. नेपाल ने साफ इनकार कर दिया और कहा कि जिस तरह नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बीपी कोइराला भारत में रह रहे हैं, उसी तरह कर्पूरी ठाकुर भी नेपाल में हैं. नेपाल के इस रुख से कर्पूरी जी को तात्कालिक राहत मिल गयी. वे चाहते थे कि नेपाल में ही भूमिगत रह कर भारत में जारी इंदिरा सरकार विरोधी गतिविधियों पर नजर रखें और जरूरत पड़े तो उन्हें संचालित भी करें. देश में दमन जारी था. जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर सहित सभी बड़े नेता गिरफ्तार हो चुके थे. प्रतिपक्षी राजनीतिक गतिविधियों पर पूर्ण प्रतिबंध था. मीडिया पर भी कठोर सेंसरशिप लग गया था. भारत आने का मतलब था, जेल में बंद हो जाना. ऐसे में नेपाल पर भारत का भारी दबाव पड़ा. नेपाल भी भारत से संबंध खराब नहीं करना चाहता था. इसलिए उसने कर्पूरी ठाकुर पर भी पांच सूत्री प्रतिबंध लगा दिया. मीडिया के प्रतिनिधियों से मिलने पर पाबंदी लगा दी गयी.
कर्पूरी जी पर यह भी प्रतिबंध लगा कि वे न तो समाचार पत्रों या पत्रिकाओं के लिए कोई लेख लिखेंगे और न ही कोई बयान जारी करेंगे.
यह पाबंदी भी कि नेपाल से बाहर वे किसी प्रकार का पत्र व्यवहार नहीं करेंगे. विदेशी दूतावासों के काठमांडू स्थित कर्मचारियों से किसी प्रकार का संबंध नहीं रखना होगा. यहां तक कि नेपाल के राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं से भी संबंध रखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. नेपाल यह भी नहीं चाहता था कि ठाकुर तराई में रहें, क्योंकि वहां से भारत में गतिविधियां चलाना आसान था. जुलाई के दूसरे सप्ताह में नेपाल सरकार उन्हें विमान से काठमांडू ले गयी. वहां उन्हें नजरबंद कर दिया गया. नेपाल की सीआइडी के अलावा भारतीय दूतावास की खुफिया पुलिस भी कर्पूरी जी पर निगरानी रखने लगी. वे जहां जाते थे, सब पीछे लग जाते थे. सोने की जगह में भी पासवाले कमरे में खुफिया पुलिस सोती थी. इतना ही नहीं, कर्पूरी ठाकुर ने 1977 में एक पत्रिका से भेंटवार्ता में बताया था कि अपने नेपाल के अज्ञातवास के दौरान मैं जिन लोगों से संपर्क में आया, उन पर नेपाल सरकार ने जुल्म भी ढाये. याद रहे कि आपातकाल के बाद कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने.

कर्पूरी जी ने बताया था कि काठमांडू के मेरे मित्र प्रो एसएन वर्मा की प्रोफेसरी नेपाल ने छुड़ा दी. वर्मा का यही कसूर था कि उन्होंने मुङो काठमांडू स्थित अपने आवास में शरण दी थी. जब मैं नेपाल से भाग निकला तो वर्मा को दस महीने तक जेल में रखा गया. कपरूरी जी के चुनाव क्षेत्र का एक व्यक्ति काठमांडू में रह कर छोटा मोटा काम करता था. पुलिस ने उसे इतना तंग किया कि उसने नेपाल छोड़ दिया. छपरा के एक व्यक्ति का काठमांडू में एक सैलून था, जहां कर्पूरी जी दाढ़ी बनवाते थे, उसे पुलिस ने इतना पीटा कि वह अधमरा हो गया. कर्पूरी जी के अनुसार नेपाल पुलिस इन लोगों पर इसलिए नाराज थी कि कैसे मैं नेपाल से निकल भागा और इन लोगों ने पुलिस को क्यों इसकी पूर्व सूचना नहीं दी.

याद रहे कि नेपाल की खुफिया पुलिस को चकमा देकर 6 सितंबर, 1975 को लिवास और अपना नाम बदल कर कर्पूरी ठाकुर थाई एयरवेज के जहाज से काठमांडू से कलकत्ता पहुंच गये. वहां बिहार के चर्चित कांग्रेसी नेता राजो सिंह और रघुनाथ झा मिले. उन्होंने कर्पूरी जी को पहचान लिया. राजो सिंह ने कागज के बहाने कर्पूरी जी की जेब में कुछ रुपये भी रख दिये. कांग्रेसी होते हुए भी इन लोगों ने कर्पूरी जी के बारे में पुलिस को सूचना नहीं दी, जबकि पुलिस उन्हें बेचैनी से तलाश रही थी. संभवत: ऐसा कर्पूरी जी के शालीन स्वभाव और ईमानदार छवि के कारण हुआ

Wednesday, June 19, 2013

प्रेरणास्रोत हैं बीएन मंडल




आजादी की लड़ाई में वे कई बार जेल गये और यातनाएं झोली. जमींदार परिवार से आने पर भी वे हमेशा गरीबों और शोषितों के बीच रह कर उन्हीं के हिमायती बने रहे. वे जीप और कार की सवारी छोड़ गांवों में बैलगाड़ी की सवारी करते थे. ऐसे वक्त में, जब पद और सत्ता पाने के लिए तमाम तरह के जोड़तोड़ की खबरें आ रही हों, यह जानना दिलचस्प होगा कि उन्होंने बिहार की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार में अहम पद लेने से इनकार कर दिया था. हम बात कर रहे हैं आजादी की लड़ाई के साथ-साथ देश में समाजवाद की स्थापना में अहम योगदान देनेवाले प्रखर नेता भूपेंद्र नारायण मंडल की, 

बीएन मंडल का जन्म मधेपुरा जिले के रानीपट्टी गांव में संपन्न जमींदार परिवार में 1 फरवरी, 1904 को हुआ. उन्होंने भागलपुर से स्नातक व पटना विवि से कानून की डिग्री प्राप्त ली. विद्यार्थी जीवन में ही वे गांधीजी के असहयोग आंदोलन से जुड़ गये थे. वकालत पेशे में आने पर 1942 में हजारों लोगों के साथ मधेपुरा कचहरी पर यूनियन जैक उतार कर हिंदुस्तान का झंडा फहरा दिया. उन्होंने उसी दिन वकालत छोड़ दी.

1937 में कई प्रांतों में आंतरिक सरकार की स्थापना हुई. कांग्रेस प्रगतिशील गुट के बड़े नेताओं ने सोशलिस्ट ग्रुप की स्थापना की, जिसके नेता जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, आचार्य नरेंद्रदेव, डॉ लोहिया आदि थे. भूपेंद्र बाबू इन्हीं नेताओं के साथ सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो समाजवादी सिद्धांतों के लिए संघर्षरत रहे. 1948 में सोशलिस्ट पार्टी कांग्रेस से अलग हो गयी. 1952 में उसने आम चुनाव लड़ा. कांग्रेस सत्ता में आ गयी. जेपी 1954 में राजनीति से संन्यास लेकर भूदान आंदोलन में चले गये और आगे चल कर सोशलिस्ट पार्टी भी दो भागों, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी, में बंट गयी. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को चुनाव चिह्न् झोपड़ी मिला और सोशलिस्ट पार्टी को बरगद का पेड़, जो सोशलिस्टों का 1952 में भी चुनाव चिह्न् था. समाजवादियों के एक ग्रुप यानी सोशलिस्ट पार्टी का नेतृत्व डॉ लोहिया कर रहे थे, जिसमें मधु लिमये, मामा बालेश्वर दयाल, बद्रीविशाल पित्ती, पीवी राजू, जार्ज फर्नाडीस, इंदुमति केलकर, राजनारायण, रामसेवक यादव एवं बीएन मंडल सरीखे नेता थे.

बीएन मंडल बिहार सोशलिस्ट पार्टी के आधार स्तंभ बने. इस पार्टी के नेताओं में अक्षयवट राय, सीताराम सिंह, बाबूलाल शास्त्री, तुलसी दास मेहता, पूरनचंद, उपेन्द्र नारायण वर्मा, भोला सिंह, श्रीकृष्ण सिंह, अवधेश मिश्र, जगदेव प्रसाद, रामइकबाल वरसी, सच्चिदानंद सिंह, जितेन्द्र यादव आदि थे. 1957 के चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी (पेड़ छाप) से बीएन मंडल एकमात्र विधायक चुने गये थे. पर, डॉ लोहिया की नीति, सिद्धांत सिद्धांत, स्पष्टवादिता और खुले एजेंडे को जनता ने खूब पसंद किया. बीएन मंडल ने अपनी प्रतिभा एवं सिद्धांतों के बल पर बिहार विधानसभा में अकेले रह कर भी समाजवादी विचारों को प्रचारित-प्रसारित करते हुए भाषण और विरोध के बल पर गरीबों और शोषितों के सवाल को बड़े पैमाने पर उठाया. 1962 में सोशलिस्ट पार्टी के सात विधायक चुने गये और 1967 में पेड़ छाप वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के 70 विधायक चुने गये. संसोपा बिहार में पहली गैर कांग्रेसी सरकार के प्रमुख घटक दल के रूप में उभरी. बीएन मंडल को बिहार की पहली गैर कांग्रेसी सरकार में प्रमुख पद दिया जा रहा था, लेकिन उन्होंने उस पद को लेने से इनकार कर दिया. उनकी राय थी कि जो व्यक्ति संसद सदस्य हो, विधानसभा सदस्य नहीं हो, उसे नैतिकता व सिद्धांत के आधार पर विधानसभा का कोई पद धारण नहीं करना चाहिए. डॉ लोहिया भी प्रारंभ से ही विधायिका के एक पद को छोड़ कर लालच या लोभ में दूसरे बड़े पद पर जाने को बेईमानी समझते थे. लोहिया जी के विचारों से बीएन मंडल सहमत थे. इसलिए संसद सदस्य होने के कारण वे मुख्यमंत्री या मंत्री पद लेने को तैयार नहीं हुए. उसी सरकार में महामाया बाबू मुख्यमंत्री और संसोपा की ओर से कपरूरी ठाकुर उप मुख्यमंत्री बने थे.
सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में भूपेन्द्र बाबू ने 1962 में कांग्रेस नेता ललित नारायण मिश्र को लोकसभा चुनाव में हराया था. वे 1966 और 1972 में राज्यसभा के लिए चुने गये. अपने संसदीय जीवन में उन्होंने राज्य और राष्ट्रहित में हमेशा गंभीरतापूर्वक अपनी राय दी. विदेशनीति और अंतरराष्ट्रीय घटनाओं पर भी उनकी पैनी दृष्टि रहती थी.

Sunday, June 9, 2013

सरकारी शिक्षा से बेरुखी

सरकारी शिक्षा से बेरुखी


अगर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की एक महत्वपूर्ण कड़ी शिक्षक है, तो अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देने के इस युग में सरकार की तरफ से हरचंद ऐसी कोशिश हुई है कि शिक्षक, पढ़ानेवाला कम और न्यूनतम मजदूरी को तरसता मजदूर ज्यादा नजर आये. वह कहीं ‘शिक्षा-मित्र’ (बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश) कहलाता है, तो कहीं ‘पारा शिक्षक’ (झारखंड), तो कहीं ‘विद्या-वालंटियर’ (आंध्रप्रदेश)   या विद्द्या सहायक ( गुजरात में ) . अगर उसे कुछ नहीं कहा जाता तो शिक्षक.
ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं, जब किसी ने सत्ता के शीर्ष पद पर पहुंचने के बावजूद अपनी स्वाभाविक साधुता बरकरार रखी हो. गरीबी में पले, सरकारी स्कूलों में पढ़े, बच्चों के बीच बेहद लोकिप्रय और उनके भीतर भविष्य का भारत देखनेवाले पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम ऐसे ही शख्सीयतों में शुमार किये जाते हैं. कलाम साहब पद पर रहते हुए सत्ता के गलियारे में इस या उस पार्टी के हित में चाल चलने के लिए नहीं, बल्कि भारत की हित-चिंता करनेवाले व्यक्ति के रूप में जाने गये और रिटायरमेंट के बाद वे एक बार फिर से ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ की उसी शैली में दिन बिता रहे हैं, जिसकी उम्मीद आजादी के बाद के दिनों में इस देश के शीर्षस्थ नेताओं ने देश के नागरिकों से की थी.


साधुता हानि-लाभ की चिंता किये बगैर आदमी से सच बुलवा लेती है, बेलाग-लपेट वाला सच. बीते मार्च महीने में कलाम साहब के साथ ऐसा ही वाक्या हुआ. मार्च महीने के दूसरे पखवाड़े की शुरु आत में वे कोलकाता में थे. यहां नेशनल हाइस्कूल की शतवार्षिकी पर आयोजित समारोह में उन्होंने वह बात कही, जो शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने के बाद देश का मानव संसाधन विकास मंत्रलय शायद ही कभी कहे या माने. कलाम साहब ने कहा कि शिक्षा कारोबार की वस्तु नहीं है. शिक्षा छात्र, अभिभावक, शिक्षक को एकतार में जोड़नेवाली होनी चाहिए और इसके लिए स्कूल का सिलेबस का अच्छा होना तो जरूरी है ही, उससे भी जरूरी है सिलेबस पढ़ानेवाले का चरित्र से महान होना.


उनके शब्द थे- ‘‘बड़ी इमारत, भरपूर सुविधाओं और बड़े विज्ञापनों से पढ़ाई में गुणवत्ता नहीं आती, पढ़ाई में गुणवत्ता आती है शिक्षक के महान होने से, शिक्षा के भीतर छात्रों के प्रति प्यार के होने से. ’’कलाम साहब कोई नयी बात नहीं कह रहे थे, वह तो सदियों से चली आ रही एक जरूरी मान्यता को फिर से रेखांकित कर रहे थे. एक ऐसी मान्यता जिसे आधिकारिक तौर पर बड़ी तेजी से भुलाया जा रहा है. शिक्षा के मामले में क्या हम बीतते दिनों के साथ यह नहीं मानने लगे हैं कि दुकान ऊंची होगी, तो पकवान भी मीठे होंगे? क्या इसी मान्यता के तहत ऐसे निजी स्कूलों की तादाद नहीं बढ़ी, जो अपने विज्ञापनों में पंचसितारा सुविधाएं देने का वादा करते हैं और निम्न-मध्यम वर्ग का अभिभावक सोचता है कि महंगी फीस चुकाने की बाध्यता के कारण चाहे पेट काटना पड़े, लेकिन बच्चे को ऊंची इमारतों और भरपूर सुविधाओंवाले निजी स्कूल में पढ़ाना जरूरी है?
इसी हफ्ते की खबर है कि सरकार देश में नयी शिक्षा नीति लाना चाहती है और मानव संसाधन विकास मंत्री एमएम पल्लम राजू इस दिशा में पूर्व मंत्री कपिल सिब्बल के नक्शे-कदम पर चलते हुए एक नया शिक्षा आयोग बनाना चाहते हैं. आयोग की रूपरेखा तय करने के लिए बैठकें हो रही हैं, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि उसका गठन भी होगा, सिफारिशें आयेंगी और शायद देश में एक और नयी शिक्षा नीति लागू हो जाये. शिक्षा आयोग इस देश में पहले भी बने हैं, उनकी सिफारिशों पर देश के लिए शिक्षा नीतियां पहले भी बनायी गयी हैं, आजादी से पहले और उसके बाद भी. आजादी से पहले इस दिशा में जो प्रयास हुए, उनमें एक प्रयास आजादी के संघर्ष के भरपूर सालों में हुआ था.


सन् 1934 में संयुक्त प्रांत की सरकार ने सप्रू समिति का गठन किया था. चूंकि इस समिति का गठन संयुक्त प्रांत में बढ़ती बेरोजगारी के कारणों का पता लगाने के लिए किया गया था, इसलिए उसकी सिफारिशों के केंद्र में बेरोजगारी का समाधान ही था. उसने सुझाया कि शिक्षा की चालू व्यवस्था तो छात्रों को सिर्फ परीक्षा पास करने और डिग्री हासिल करने के लिए तैयार करती है. समिति का समाधान था कि लोगों को रोजगारपरक शिक्षा दी जानी चाहिए. याद रहे कि भारतीय स्वाधीनता का जो संग्राम उन दिनों सांस्कृतिक मोरचे पर लड़ा जा रहा था, उसका विचार इसके उलट था. ‘शिक्षे! तेरा नाश हो जो नौकरी के हित ही बनी’- तब सांस्कृतिक मोरचे से यह आवाज उठ रही थी.

Tuesday, March 12, 2013

डॉ. अम्बेडकर और महात्मा गांधी



डाक्टर भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महाराष्ट्र के एक महार परिवार में हुआ था। 1907 में मैट्रिकुलेशन पास करने के बाद बड़ौदा महाराज की आर्थिक सहायता से वे एलिफिन्सटन कॉलेज से 1912 में ग्रेजुएट हुए। कुछ साल बड़ौदा राज्य की सेवा करने के बाद उनको गायकवाड़-स्कालरशिप प्रदान किया गया जिसके सहारे उन्होंने अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए. (1915) किया। इसी क्रम में वे प्रसिध्द अमेरिकी अर्थशास्त्री सेलिगमैन के प्रभाव में आए। सेलिगमैन के मार्गदर्शन में उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय से 1917 में पीएच. डी. की उपाधी प्राप्त कर ली। उनके शोध का विषय था - नेशनल डेवलेपमेंट फॉर इंडिया : ए हिस्टोरिकल एंड एनालिटिकल स्टडी। इसी वर्ष उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में दाखिला लिया लेकिन साधनाभाव में अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाए। कुछ दिनों तक वे बड़ौदा राज्य के मिलिटरी सेक्रेटरी थे। फिर वे बड़ौदा से बम्बई आ गए। कुछ दिनों तक वे सिडेनहैम कॉलेज, बम्बई में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर भी रहे। डिप्रेस्ड क्लासेज कांफरेंस से भी जुड़े और सक्रिय राजनीति में भागीदारी शुरू की। कुछ समय बाद उन्होंने लंदन जाकर लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी की। इस तरह विपरीत परिस्थिति में पैदा होने के बावजूद अपनी लगन और कर्मठता से उन्होंने एम.ए., पी एच. डी., एम. एस. सी., बार-एट-लॉ की डिग्रियां प्राप्त की। इस तरह से वे अपने युग के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे राजनेता एवं विचारक थे। उनको आधुनिक पश्चिमी  समाजों की संरचना की समाज-विज्ञान, अर्थशास्त्र एवं कानूनी दृष्टि से व्यवस्थित ज्ञान था। वे विदेशों के परिवेश तथा मान्यताओं को पूर्ण रूप से समझते थे, किन्तु उन्होंने अपने कार्यों एवं रचनाओं के द्वारा जिस विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया उसकी संरचना में सबसे अधिक भाग भारत की तत्कालीन परिस्थिति में उनके अपने अनुभवों, विवेक एवं दूरदर्शिता की थी। महात्मा गांधी और देंग शियाओ पिंग की तरह डा. अम्बेडकर भी एक रणनीतिक विचारक थे और समय-समय पर आवश्यकता के अनुसार अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपने विचारों एवं सरोकारों को पिछले अनुभवों के आधार पर संशोधित एवं परिमार्जित भी किया। लेकिन शुरू से अंत तक  उनका लक्ष्य एवं उनके चिंतन की मूल धारा में निरंतरता बनी रही। 1920 के दशक में बंबई में एक बार बोलते हुए उन्होंने साफ-साफ कहा था ''जहाँ मेरे व्यक्तिगत हित और देशहित में टकराव होगा वहाँ मैं देश के हित को प्राथमिकता दूँगा, लेकिन जहाँ दलित जातियों के हित और देश के हित में टकराव होगा, वहाँ मैं दलित जातियों को प्राथमिकता दूँगा।'' वे अंतिम समय तक दलित-वर्ग के मसीहा थे और उन्होंने जीवनपर्यंत अछूतोद्वार के लिए कार्य किया। जब गांधी ने दलितों को अल्पसंख्यकों की तरह पृथक निर्वाचन मंडल देने के ब्रिटिश नीति के खिलाफ आमरण अनशन किया तो शुरू में डा. अम्बेडकर ने कहा ''महात्मा कोई अमर व्यक्ति नहीं है, और न कांग्रेस ही अमर है। बहुत से महात्मा आये और चले गये। लेकिन अछूत अछूत ही बने रहे।'' लेकिन जब आमरण अनशन के कारण सचमुच महात्मा गांधी के जीवन पर खतरा मंडराने लगा तो देश के हित के लिए डा. अम्बेडकर ने महात्मा गांधी के साथ पूना-पैक्ट (1932) किया। और स्वतंत्रता मिलने के बाद संविधान सभा के प्रारूप समिति के अध्यक्ष एवं भारत के प्रथम कानून मंत्री के रूप में डा. अम्बेडकर का चुनाव महात्मा गांधी की प्रेरणा से ही हुआ था। भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण के बारे में सैद्वांतिक सहमति गांधी-अम्बेडकर के पूना पैक्ट के दौरान ही हो गई थी। महात्मा गांधी पाकिस्तान की तरह दलितिस्तान की संभावना के कारण पृथक निर्वाचन मंडल के खिलाफ थे लेकिन अछूतोध्दार की हर उस कोशिश के पक्ष में थे जो अहिंसा एवं सत्य के साथ सर्वोदय के उनके आदर्श के खिलाफ न हो। दलितों और जनजातियों को मुख्यधारा में लाने के लिए कानूनी संरक्षण या आरक्षण के बारे में गांधीजी और डा. अम्बेडकर के विचारों में 1932 के बाद सैद्वांतिक विरोध की जगह पूरकता ज्यादा दिखती है।


     महात्मा गांधी अछूतोध्दार के लिए सवर्ण हिन्दुओं के हृदयपरिवर्तन के लिए वैष्णव धर्म और भक्ति आंदोलन की सभ्यतामूलक चेतना में जैन दर्शन के अनेकांतवाद से भी प्रभावित थे। उनका मानना था कि अछूतों की कुछ समस्यायें तो सवर्ण हिन्दुओं की अशिक्षा के कारण पैदा हुई है लेकिन उनकी कुछ समस्यायें हर समुदाय के किसानों, श्रमिकों एवं शिल्पकारों की समस्या है जो उपनिवेशवादी गुलामी के कारण पैदा हुई है। इसके निवारण के लिए महात्मा गांधी ने बुनियादी शिक्षा, ग्राम स्वराज, सर्वोदय और आत्म-परिष्कार की वकालत किया। महात्मा गांधी समाज की समस्या को समाज के लोगों (जिसे वे लोक कहते थे) के स्तर पर आपसी सद्भाव से हल करने के पक्ष में थे। वे राज्य की बहुत सीमित भूमिका देखते थे। आधुनिक विधि व्यवस्था, संसद, पुलिस-स्टेशन आदि पर उनको ज्यादा भरोसा नहीं था। दुर्खीम के गिल्ड-समाजवाद को ही वे सर्वोदय के नाम से भारतीय समस्याओं के समाधान के लिए प्रस्तुत कर रहे थे। गांधीजी के प्रति अपार आदर के बावजूद कांग्रेस की सरकार गांधीजी की विचारधारा पर नहीं चल पायी। जवाहरलाल नेहरू आधुनिक पश्चिम की औद्योगिक व्यवस्था के तहत मार्क्सवाद से प्रभावित प्रजातांत्रिक समाजवाद के समर्थक थे।


     महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के विपरीत डा. अम्बेडकर समाजवादी नहीं थे। उनकी शिक्षा अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में हुई थी। वे मार्क्सवादी समाजवाद के स्थान पर पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में प्रचलित प्रजातांत्रिक पूँजीवादी व्यवस्था के तहत ही बौद्व धर्म 'बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय' वाले आदर्श समाज के निर्माण के पक्षधर थे जिसमें हर व्यक्ति एक दूसरे के समान होगा। फ्रांसीसी क्रांति के नारे स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व की भावना को वे भगवान बुध्द, महात्मा कबीर और महात्मा ज्योतिबा के चिंतन का भी केन्द्रीय सरोकार मानते हैं। वे अक्सर कहा करते थे कि यह सुखद संयोग है कि फ्रांसीसी क्रांति के नेताओं को भी भारतीय मनीषियों की तरह सभ्य समाज के लिए स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व की विचारधारा उतनी ही आवश्यक लगती थी।


     आधुनिक विधि व्यवस्था, संसद और आधुनिक शिक्षा में उनकी गहरी आस्था थी। वे अधिकांशत: पश्चिमी अभिजन की शैली में कोट-पैंट और टाई लगाते थे। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि दलितों को न सिर्फ ऊँची शिक्षा हासिल करनी चाहिए बल्कि सत्ता संचालन में प्रत्यक्ष भागीदारी करनी चाहिए। बिना राजनैतिक-आर्थिक शक्ति और ज्ञान प्राप्त किये दलितों और अछूतों के लिए उन्नति के सारे मार्ग बंद हैं। अत: उन्होंने अपने अनुयायियों को आपस में राजनैतिक रूप से संगठित होकर सत्ता में प्रत्यक्ष भागीदारी के लिए प्रेरित किया। 1920 से 1956 तक पूरे जीवन वे दलितों को राजनैतिक रूप से संगठित होकर सत्ता में प्रत्यक्ष भागीदारी के लिए विभिन्न मंचों पर सक्रिय रहे। लेकिन अपने जीवन में राजनैतिक स्तर पर अपने दल रिपब्लिकन पार्टी को उतनी सफलता नहीं दिला पाये। लेकिन कालांतर में उनके विचारों से प्रेरित दलित आंदोलन से कांसीराम और मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी का विकास हुआ जिसने 1980 के दशक से उत्तर प्रदेश की राजनीति में पहले दलित वोटों को गोलबंद करने में सफलता पायी फिर गठबंधन की राजनीति के दौर में 1993 से सत्ता में प्रत्यक्ष भागीदारी पाना शुरू किया। 1995 से अब तक मायावती उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं और उत्तर भारत के अन्य राज्यों में भी बहुजन समाज पार्टी का विस्तार हो रहा है। अब दलितों को अछूत कहना तो दूर उनके नेतृत्व में राजनीतिक गठबंधन बनाने की होड़ सवर्ण जातियों में आम बात हो गई है।


  शिक्षण केन्द्रों, नौकरियों, विधान सभा और लोक सभा में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए 1952 से आरक्षण लागू करवा लेना डा. अम्बेडकर के लिए बड़ी उपलब्धी मानी जाती है। दलित, आदिवासियों और स्त्रियों के अधिकारों के रक्षा के लिए भी डा. अम्बेडकर ने कई कानून बनवाया। उनकी प्रेरणा से अनुसूचित जाति आयोग भी बना।


     महात्मा गांधी के विपरीत डा. अम्बेडकर गांवों की अपेक्षा नगरों में एवं ग्रामीण शिल्पों या कृषि की व्यवस्था की तुलना में पश्चिमी समाज की औद्योगिक विकास में भारत और दलितों का भविष्य देखते थे। वे मार्क्सवादी समाजवाद की तुलना में बौध्द मानववाद के समर्थक थे जिसके केन्द्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता एवं भ्रातृत्व की भावना है।